गीता जयंती: सफलता का मूलमंत्र छिपा है श्रीकृष्‍ण के इन उपदेशों में

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आज से सालों पहले कुरुक्षेत्र में मुरलीधर कृष्‍ण का दिया गया गीता ज्ञान आज के जीवन पर बिल्‍कुल सटीक बैठता है। बात चाहे सामाजिक परेशानी की हो, व्‍यावहारिक परेशानी की हो या फिर भावनात्‍मक तकलीफ की हो, गीता में हर समस्‍या का समाधान है। यही नहीं इन उपदेशों को यदि अपने जीवन में उतार लिया जाए तो आपको सफल होने से कोई रोक नहीं सकता। आइए जानते हैं गीता के कुछ उपदेशों के बारे में…

1 गूस्‍से पर काबू

गीता में योगेश्‍वर कृष्‍ण द्वारा बताए गए श्‍लोकों में से एक श्‍लोक में गुस्‍से पर काबू रखना बताया गया है। इसका आशय है कि कोई भी व्‍यक्ति जब क्रोध करता है तो भ्रम पैदा होता है। यानी कि सही और गलत का भेद मिट जाता है। बस क्रोध ही शेष ही रहता है। इससे बुद्धि भी व्‍यग्र हो जाती है। इसके बाद किसी भी सही बात का तर्क व्‍यर्थ जाता है और तब व्‍यक्ति के पतन की शुरुआत हो जाती है। वर्तमान समय में यदि इसकी प्रासंगिता की बात करें तो किसी भी कार्य को करते समय यदि क्रोध आ जाए तो कार्य प्रभावित होता है। कई बार तो यहां तक देखा गया है कि लोग क्रोध में आकर अपनी नौकरी, रिश्‍ते या फिर जिंदगी तक को दांव पर लगा देते हैं। वह अपने क्रोध के दुष्‍परिणामों के बारे में कभी भी विचार नहीं करते। इसलिए जरूरी है कि जब क्रोध आए तो कुछ क्षण रुककर उससे होने वाले परिणामों के बारे में एक बार जरूर विचार कर लें। इसके बाद ही कोई भी कदम उठाएं।

2 देखने का नजरिया

श्रीकृष्‍ण कहते हैं व्‍यक्ति को ज्ञान और कर्म दोनों को ही एक समान रूप में देखना चाहिए। यानी कि एक ही नजरिया रखना चाहिए। वर्तमान समय में यदि इसकी प्रासंगिकता को देखें तो कई बार ऐसा देखने और सुनने में आता है कि व्‍यक्ति बातें तो बड़ी-बड़ी कर्म प्रधान करता है लेकिन जब खुद वह उस स्‍थ‍िति में होता है तो वह उन्‍हें भूलकर जो खुद के लिए सही हो बस वही करता है। फिर चाहे उसके लिए वह अंजाने में ही दूसरों का अहित कर रहा हो। इसलिए ज्ञान और कर्म दोनों को ही सदैव एक समान नजरिए से देखना चाहिए। कर्म वही करें जिसकी ज्ञान इजाजत देता है। इस तरह से व्‍यक्ति सही-गलत और पाप-पुण्‍य के बीच का फर्क आसानी से समझ सकता है।

3 मन पर नियंत्रण

श्रीमद्भगवत गीता के एक श्‍लोक में योगेश्‍वर कृष्‍ण ने बताया है कि व्‍यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण जरूर होना चाहिए। वह अर्जुन से कहते हैं कि मन अत्‍यंत चंचल होता है। इसपर विराम लगाना मनुष्‍य की जिम्‍मेदारी होती है। अन्‍यथा यह तो अपनी ही गति से चलता रहता है। वर्तमान समय में मन पर नियंत्रण रखने से आशय है कि कई बार हमें पता होता है कि जो कुछ हम कर रहे हैं या फिर करने जा रहे हैं उससे किसी का अहित हो सकता है। या फिर हो सकता है कि खुद के लिए भविष्‍य में यह नुकसानदायक हो लेकिन वर्तमान में कुछ पलों के लिए वह सुखद है। मन की चंचलता के चलते व्‍यक्ति जानते-समझते हुए भी कई बार गलत कदम उठा लेता है। इसलिए ऐसे कर्मों से दूर रहना चाहिए। अन्‍यथा व्‍यक्ति का मन ही उसका सबसे बड़ा दुश्‍मन बन जाता है।

4 सच्‍चे दोस्‍त

श्रीमद्भगवत गीता ने श्रीकृष्‍ण ने सच्‍चे दोस्‍त के बारे में बताया है कि सच्‍चा मित्र वही होता है जो आपका बुरे वक्‍त में साथ दे। यानी कि दु:ख और परेशानी में हर वक्‍त आपके साथ खड़े हों। ऐसा न हो कि वह समस्‍याएं आते ही वह आपसे दूर हो जाएं। यदि आपका मित्र ऐसा न करे तो तुंरत ही उसका परित्‍याग कर देना चाहिए। अन्‍यथा ऐसे लोग आपके मित्र बनकर मित्रों की संख्‍या में तो इजाफा कर देंगे लेकिन जरूरत पड़ने पर कोई आपके साथ नहीं होगा। वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता कुछ इस तरह है कि वक्‍त जब सही हो तो तमाम दोस्‍त मिल जाते हैं मौज-मस्‍ती करने के लिए, लेकिन वक्‍त खराब हो तो सभी साथ छोड़ देते हैं। बहुत कम होते हैं जो आपका साथ देते हैं तो जो बुरे वक्‍त में साथ दे वही सच्‍चा मित्र है।

5 अनुभवों से सीख लें

श्रीकृष्‍ण ने गीता में अर्जुन से कहा कि व्‍यक्ति को अपने गुरु के अलावा अपने अनुभवों से भी सीख लेनी चाहिए। अन्‍यथा कई बार व्‍यक्ति परेशानी में पड़ सकता है। वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिकता कुछ इस तरह है कि लोग बड़े-बुजुर्गों की राय को अक्‍सर ही अवॉयड कर देते हैं। जबकि ऐसा नहीं करना चाहिए उनके अनुभवों से सीख लेकर आगे बढ़ना चाहिए। ताकि लक्ष्‍यों तक सुगमता से पहुंचा जा सके। अन्‍यथा कई बार ऐसा भी देखा गया है कि बार-बार असफलता मिलने के बाद भी व्‍यक्ति उसी पथ पर उसी प्रक्रिया से बार-बार गुजरता है। जबकि उसे बीते समय में मिले परिणामों का विशलेषण करना चाहिए और फिर मिले अनुभवों के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए।

6 मोह के बजाए सत्‍य को जानें

श्रीमद्भगवत गीता में श्रीकृष्‍ण अर्जुन को बताते हैं कि मोह के बजाए सत्‍य को जानने का प्रयास करना चाहिए। यानी कि शरीर एक दिन नष्‍ट हो जाएगा तो इसका मोह त्‍याग दें और समाज और धर्म की स्‍थापना के लिए जो भी बेहतर से बेहतर कर सकते हों, उसे करने में कोताही न बरतें। वर्तमान समय में इसकी प्रासंगिता कुछ तरह है कि व्‍यक्ति को ईश्‍वर और धर्म को जानने का प्रयास करना चाह‍िए। ऐसा करने से वह कभी भी किसी भी गलत दिशा में नहीं जाएगा। साथ ही वह धर्म और ईश्‍वर को जानते-समझते हुए कार्य करेगा। ऐसे में उसके सफल होने की संभावनाएं भी अधिक हो जाती हैं।

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