प्रेम और परोपकार का भाव हमें सदा आनंद देता है

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इंसान के असली आनंद का कारण उसका साफ अंतःकरण है। यह व्यक्ति के चेहरे पर साफ दिखाई देता है। उसके हाव-भाव, विचार, सोच पर भी उसका गहरा असर होता है। ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति द्वेषभाव नहीं रखता है। उसकी मनोवृत्ति में सबके लिए अनुराग और आदर का भाव रहता है। उसका चित्त प्रसन्न रहता है और ऐसा व्यक्ति किसी से बेकार की आशा रखकर प्रसन्न नहीं होता।

संत रविदास ने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। इस उक्ति का वास्तविक मतलब है, प्रभु के रंग में रंगा कोई व्यक्ति जब अपने कार्य प्रभु का नाम लेते हुए करता है, तो वह स्थान ही तीर्थ स्थल बन जाता है। संत के बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि जो अपने लिए किसी भी प्रकार की इच्छा न रखे और परोपकार में अपना समय लगाए वह संत है। संत रविदास के लिए कर्म और परोपकार ही पूजा थी। आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंस के अनुसार प्रभु के दर्शन के लिए विकल होकर उनसे प्रार्थना करो। इससे चित्त शुद्ध हो जाएगा और निर्मल जल में सूर्य का बिंब दिखाई देगा। भक्त के ‘मैं’ रूपी आईने में उस सगुण ब्रह्म-आदिशक्ति के दर्शन होंगे। लेकिन इसके लिए मनोवृत्ति रूपी आईने को खूब साफ रखना चाहिए। आईने के मैला होने पर शुद्ध बिंब दिखाई नहीं देगा।

ब्रह्मज्ञान चाहते हो, तो सूर्य के उसी प्रतिबिंब को पकड़ कर सत्य के सूर्य की ओर जाओ। उस सगुण ब्रह्म से कहो, वही ब्रह्मज्ञान देंगे, क्योंकि जो सगुण ब्रह्म है, वही निर्गुण ब्रह्म भी है। जो शक्ति है, वही ब्रह्म भी है। पूर्ण ज्ञान के बाद दोनों के बीच कोई भेद नहीं रह जाता। एक और मार्ग है ज्ञानयोग। यह कठिन मार्ग है। जो लोग ज्ञानी हैं, उन्हें विश्वास है कि ब्रह्म सत्य है और संसार मिथ्या, यानी स्वप्न के समान। वह अंतर्यामी है। उनसे सरल और शुद्ध मन से प्रार्थना करो, यही असली खुशी का मार्ग है। अहंकार छोड़कर उनकी शरण में जाओ। जब बाहर के लोगों से मिलना, तब सभी को प्यार करना और द्वेष भाव जरा भी न रखना। यह आपकी आत्मा को साफ रखेगा। यह आदमी साकार मानता है, निराकार नहीं, या वह आदमी निराकार मानता है, साकार नहीं, या फिर जाति, धर्म, क्षेत्रीयता वगैरह कह-कहकर घृणा से अपने आपको न भरना। इस तरह मन को शुद्ध कर अपने घर में शांति और आनंद के साथ जीवन व्यतीत करो। हृदय रूपी घर में ज्ञान का दीपक जलाकर प्रसन्न रहो।

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है, हम क्या प्राप्त करना चाहते हैं, किसी चीज की हमें लालसा है? वह सुख है, ऐसा सोचकर हम उसे प्राप्त करने के लिए बहुत सारे कामों में लगे रहते हैं। हम सोचते हैं कि यही हमें सुखी बनाएगा, पर क्या हम सच्चे सौभाग्य के मायने को जानने के लिए जागरूक हैं? भगवान श्रीकृष्ण ने सुखी रहने की मायावी अवधारणा से सभी को आलोकित किया, जिसके अनुसार हम आनंद को बहुत सारे बाहरी कारकों में ढूंढते हैं। हम अपनी सारी शक्ति को इंद्रियों की संतुष्टि में लगा देते हैं। जबकि इस प्रकार का सौभाग्य केवल अस्थायी होता है और दुखों के चक्र के साथ लिपटा रहता है। सच्चा रस शांत मस्तिष्क से निकलता है, जो किसी बाहरी तत्व पर निर्भर नहीं करता है और हर स्थिति में अचल रहता है।

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