मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डक प्रथम खण्ड || Mundakopanishad Tritiya Mundak Pratham Khand

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इससे पूर्व आपने मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड, द्वितीय खण्ड व द्वितीय मुण्डक के प्रथम खण्ड व द्वितीय खण्ड पढ़ा। इसके आगे अब मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डक प्रथम खण्ड पढ़ेंगे। इस खण्ड में १० मंत्र है।

इस मुण्डक में ‘जीवात्मा‘ और ‘परमात्मा‘ के सम्बन्धों की व्यापक चर्चा की गयी है। उनकी उपमा एक ही वृक्ष पर रहने वाले दो पक्षियों से की गयी है। यह वृक्ष की शरीर है, जिसमें आत्मा और परमात्मा दोनों निवास करते हैं। एक अपने कर्मों का फल खाता है और दूसरा उसे देखता रहता है।

• शरीर में रहने वाला ‘जीवात्मा’ मोहवश सभी इन्द्रियों का उपभोग करता है, जबकि दूसरा केवल दृष्टा मात्र है। जब साधक उस प्राण-रूप् परमात्मा को जान लेता है, तब वह अपनी आत्मा को भी उन सभी मोह-बन्धनों तथा उपभोगों से अलग करके, परमात्मा के साथ ही योग स्थापित करता है और मोक्ष को प्राप्त करता है। सत्य की ही सदा जीत होती है-

वह ब्रह्म (परमात्मा) अत्यन्त महान् है और दिव्य अनुभूतियों वाला है। वह सहज चिन्तन की सीमाओ से परे है। उसके लिए निष्काम और सतत साधना करनी पड़ती है। वह कहीं दूर नहीं, हमारे हृदय में विराजमान है। उसे मन और आत्मा के द्वारा ही पाया जा सकता है। निर्मल अन्त:करण वाला आत्मज्ञानी उसे जिस लोक और जिस रूप में चाहता है, वह उसी लोक और उसी रूप में उसे प्राप्त हो जाता है।

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयान:।

॥अथ मुण्डकोपनिषद् तृतीय मुण्डके प्रथमः खण्डः ॥

तृतीय मुण्डक

प्रथम खण्ड

द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।

तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥ १॥

‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ की उपमा वाला यह मन्त्र अत्यन्त प्रसिद्ध है—

साथ-साथ रहने तथा सख्या-भाव वाले दो पक्षी एक ही वृक्ष (शरीर) पर रहते हैं। उनमें से एक उस वृक्ष के पिप्पल (कर्मफल) का स्वाद लेता है और दूसरा (परमात्मा) निराहार रहते हुए केवल देखता रहता है।॥१॥

समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनिशया शोचति मुह्यमानः ।

जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य

महिमानमिति वीतशोकः ॥ २॥

पूर्वोक्त शरीर रूपी समान वृक्षपर रहनेवाला जीवात्मा शरीर की गहरी आसक्ति में डूबा हुआ है। असमर्थता रूप दीनता का अनुभव करता हुआ, मोहित होकर शोक करता रहता है। जब कभी भगवान की अहैतुकी दया से भक्तों द्वारा नित्य सेवित तथा अपने से भिन्न, परमेश्वर को और उनकी महिमा को यह प्रत्यक्ष कर लेता है, तब सर्वथा शोक रहित हो जाता है। ॥२॥

यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्णं

कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् ।

तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय

निरञ्जनः परमं साम्यमुपैति ॥ ३॥

जब यह द्रष्टा जीवात्मा सबके शासक ब्रह्मा के भी आदि कारण, सम्पूर्ण जगत के रचयिता, दिव्य प्रकाश स्वरूप परमपुरुष को प्रत्यक्ष कर लेता है। उस समय पुण्य-पाप दोनों को भलीभाँति हटाकर निर्मल हुआ वह ज्ञानी महात्मा सर्वोत्तम समता को प्राप्त कर लेता है। ॥३॥

प्रणो ह्येष यः सर्वभूतैर्विभाति

विजानन् विद्वान् भवते नातिवादी ।

आत्मक्रीड आत्मरतिः क्रियावा-

नेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः ॥ ४॥

यह परमेश्वर ही प्राण है, जो सब प्राणियों के द्वारा प्रकाशित हो रहा है। इसको जाननेवाला ज्ञानी अभिमान पूर्वक बढ़-चढ़कर बातें करनेवाला नहीं होता। किंतु वह यथायोग्य भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करता हुआ सबके आत्मरूप अन्तर्यामी परमेश्वर में क्रीडा करता रहता है और सबके आत्मा अन्तर्यामी परमेश्वर में ही रमण करता रहता है। यह ज्ञानी भक्त ब्रह्मवेत्ताओं में भी श्रेष्ठ है। ॥४॥

सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा

सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ।

अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो

यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः ॥ ५॥

यह शरीर के भीतर ही हृदय में विराजमान प्रकाश स्वरूप और परम विशुद्ध परमात्मा निस्संदेह सत्य भाषण तप और ब्रह्मचर्य पूर्वक, यथार्थ ज्ञान से ही सदा प्राप्त होनेवाला है। जिसे सब प्रकार के दोषों से रहित हुए यत्नशील साधक ही देख पाते हैं। ॥५॥

सत्यमेव जयते नानृतं

सत्येन पन्था विततो देवयानः ।

येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा

यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानम् ॥ ६॥

सत्य ही विजयी होता है, झूठ नहीं क्योंकि वह देवयान नामक मार्ग सत्य से परिपूर्ण है। जिसमें पूर्ण काम ऋषि लोग वहाँ गमन करते हैं। जहाँ वह सत्य स्वरूप परब्रह्म परमात्मा उत्कृष्ट धाम है। ॥६॥

बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं

सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।

दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च

पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥ ७॥

वह परब्रह्म महान दिव्य और अचिन्त्यत्वरूप है तथा वह सूक्ष्म से भी अत्यंत सूक्ष्मरूप से प्रकाशित होता है तथा वहाँ दूर से भी अत्यंत दूर है और इस शरीर में रहकर अत्यंत समीप भी है। यहाँ देखने वालों के भीतर ही उसकी हृदय रुपी गुफा में स्थित है। ॥७॥

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा

नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।

ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्व-

स्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं

ध्यायमानः ॥ ८॥

वह परमात्मा न तो नेत्रों से, न वाणी से और न दूसरी इन्द्रियों से ही ग्रहण करने में आता है। तथा तप से अथवा कर्मों से ही वह ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अवयवरहित परमात्मा को तो विशुद्ध अन्त:करण वाला साधक उस विशुद्ध अन्त:करण से निरन्तर उसका ध्यान करता हुआ ही ज्ञान की निर्मलता से देख पाता है। ॥ ८॥

एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यो

यस्मिन् प्राणः पञ्चधा संविवेश ।

प्राणैश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानां

यस्मिन् विशुद्धे विभवत्येष आत्मा ॥ ९॥

जिसमे पाँच भेदोवाला प्राण भली भॉति प्रविष्ट है उसी शरीर में रहनेवाला यह सूक्ष्म आत्मा मन से जानने योग्य है। प्राणियों का वह सम्पूर्ण चित्त प्राणों से व्याप्त है। जिस अन्तःकरण के विशुद्ध होने पर यह आत्मा सब प्रकार से समर्थ होता है ॥ ९ ॥

यं यं लोकं मनसा संविभाति

विशुद्धसत्त्वः कामयते यांश्च कामान् ।

तं तं लोकं जयते तांश्च कामां-

स्तस्मादात्मज्ञं ह्यर्चयेत् भूतिकामः ॥ १०॥

विशुद्ध अन्तःकरण वाला मनुष्य जिस-जिस लोक को मन से चिन्तन करता है। तथा जिन भोगों की कामना करता है, उन-उन लोकों को जीत लेता है और उन इच्छित भोगों को भी प्राप्त कर लेता है। इसीलिये ऐश्वर्य की कामना वाला मनुष्य शरीर से भिन्न आत्मा को जाननेवाले महात्मा का सत्कार करे। ॥१०॥

॥ इति मुण्डकोपनिषद् तृतीयमुण्डके प्रथमः खण्डः ॥

॥ प्रथम खण्ड समाप्त ॥१॥

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