परमेश्वर स्तोत्र || Parameshvar Stotra – जगदीश सुधीश भवेश विभो

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परमेश्वर स्तोत्र का नित्य पाठ करने से साधक संसार के सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है।

जगदीश सुधीश भवेश विभो

परमेश परात्पर पूत पितः।

प्रणतं पतितं हतबुद्धिबलं

जनतारण तारय तापितकम् ॥१॥

हे जगदीश ! हे सुमतियों के स्वामी! हे विश्वेश! हे सर्वव्यापिन् ! हे परमेश्वर ! हे प्रकृति आदि से अतीत ! हे परमपावन ! हे पितः ! हे जीवों का निस्तार करनेवाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बल से हीन संसार सन्तप्त दास का उद्धार कीजिये॥१॥

गुणहीनसुदीनमलीनमतिं

त्वयि पातरि दातरि चापरतिम् ।

तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥२॥

जो सर्वथा गुणहीन, अत्यन्त दीन और मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आपसे पराङ्मुख है, हे जीवों का निस्तार करनेवाले ! इस संसार सन्तप्त उस तामस-राजस वृत्तिवाले दास का आप उद्धार कीजिये ॥२॥

मम जीवनमीनमिमं पतितं

मरुघोरभुवीह सुवीहमहो ।

करुणाब्धिचलोर्मिजलानयनं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥३॥

हे जीवों का निस्तार करनेवाले ! इस भयानक मरुभूमि में पड़कर नितान्त निश्चेष्ट हुए मेरे इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीन का अपने करुणावारिधि की चञ्चल तरङ्गों का जल लाकर उद्धार कीजिये ॥ ३ ॥

भववारण कारण कर्मततौ ।

भवसिन्धुजले शिव मग्नमतः ।

करुणाञ्च समर्प्य तरि त्वरितं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥४॥

अतः हे संसार की निवृत्ति करनेवाले! हे कर्मविस्तार के कारणस्वरूप! हे कल्याणमय ! हे जीवों का निस्तार करनेवाले ! संसार समुद्र के जल में डूबकर सन्तप्त होते हुए इस दास को अपनी करुणारूप नौका समर्पण करके यहाँ से तुरंत उद्धार कीजिये ॥४॥

अतिनाश्य जनुर्मम पुण्यरुचे ।

दुरितौघभरैः परिपूर्णभुवः।

सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥५॥

हे पुण्यरुचे ! हे जीवोद्धारक ! जिसकी पापराशि के भार से पृथ्वी परिपूर्ण है, ऐसे मुझ नीच के जन्म को सदा के लिये मिटाकर मुझ अत्यन्त निन्दनीय, नगण्य, पाप में रुचि रखनेवाले और संसार के दुःखों से दुःखित का उद्धार कीजिये ॥ ५॥

भवकारक नारकहारक हे

भवतारक पातकदारक हे ।

हर शङ्कर किङ्करकर्मचयं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥६॥

हे जगत्कर्ता ! हे नारकीय यन्त्रणाओं का अपहरण करनेवाले ! हे संसार का उद्धार करनेवाले ! हे पापराशि को विदीर्ण करनेवाले ! हे शङ्कर ! इस दास की कर्मराशि का हरण कीजिये और हे जीवों का निस्तार करनेवाले! इस संसारसन्तप्त जन का उद्धार कीजिये ॥ ६॥

तृषितश्चिरमस्मि सुधां हित मे

ऽच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर ।

अतिमोहवशेन विनष्टकृतं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥७॥

हे अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदारचूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त तृषित हूँ, मुझे ज्ञानरूप अमृत का पान कराइये। मैं अत्यन्त मोह के वशीभूत होकर नष्ट हो रहा हूँ। हे जीवों का उद्धार करनेवाले ! मुझ संसारसन्तप्त को पार लगाइये॥७॥

प्रणमामि नमामि नमामि भवं

भवजन्मकृतिप्रणिषूदनकम् ।

गुणहीनमनन्तमितं शरणं ।

जनतारण तारय तापितकम् ॥८॥

संसार में जन्म प्राप्ति के कारणभूत कर्मो का नाश करनेवाले आपको मैं बारंबार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ। हे जीवों का उद्धार करनेवाले! आप निर्गुण और अनन्त की शरण को प्राप्त हुए इस संसारसन्तप्त जन का उद्धार कीजिये ॥८॥

इति परमेश्वरस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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