प्रश्नोपनिषद् || Prashn Upanishad || Prashna Upnishad || Prashnopanishad
प्रश्नोपनिषद् के प्रथम भाग में आपने पढ़ा- प्रथम प्रश्न प्रजापति के रथि और प्राण की ओर उनसे सृष्टि की उत्पत्ति बतलाकर आचार्य ने द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप का निरूपण किया है और समझाया है कि वह स्थूल देह का प्रकाशक धारयिता एवं सब इंद्रियों से श्रेष्ठ है। तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण करके पिप्पलाद ने कहा है कि मरणकाल में मनुष्य का जैसा संकल्प होता है उसके अनुसार प्राण ही उसे विभिन्न लोकों में ले जाता है।
अब इसके आगे प्रश्नोपनिषद् श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद पढ़ेंगे-
|| प्रश्नोपनिषद् चतुर्थः प्रश्नः ||
अथ हैनं सौर्यायणि गार्ग्यः पप्रच्छ । भगवन्नेतस्मिन् पुरुषे
कानि स्वपन्ति कान्यस्मिञ्जाग्रति कतर एष देवः स्वप्नान् पश्यति
कस्यैतत् सुखं भवति कस्मिन्नु सर्वे सम्प्रतिष्ठिता भवन्तीति ॥ ४.१॥
तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से सूर्य के पौत्र गार्ग्य ने पूछा-‘भगवन्! इस पुरुष में कौन [इन्द्रियाँ सोती हैं? कौन इसमें जागती है? कौन देव स्वप्नों को देखता है? किसे यह सुख अनुभव होता है? तथा किसमें ये सब प्रतिष्ठित है?’॥१॥
तस्मै स होवाच यथा गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः सर्वा
एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्त्येवं
ह वै तत् सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति तेन तर्ह्येष पुरुषो न
शृणोति न पश्यति न जिघ्रति न रसयते न स्पृशते नाभिवदते
नादत्ते नानन्दयते न विसृजते नेयायते स्वपितीत्याचक्षते ॥ ४.२॥
तब उससे उस (आचार्य)-ने कहा-‘हे गार्ग्य। जिस प्रकार सूर्य के अस्त होने पर सम्पूर्ण किरणें उस तेजोमण्डल में ही एकत्रित हो जाती हैं और उसका उदय होने पर वे फिर फैल जाती हैं। उसी प्रकार वे सब [इन्द्रियाँ] परमदेव मन में एकीभाव को प्राप्त हो जाती हैं। इससे तब वह पुरुष न सुनता है, न देखता है, न सूँघता है, न चखता है, न स्पर्श करता है, न बोलता है, न ग्रहण करता है, न आनन्द भोगता है, न मलोत्सर्ग करता है और न कोई चेष्टा करता है। तब उसे ‘सोता है’ ऐसा कहते हैं॥२॥
प्राणाग्नय एवैतस्मिन् पुरे जाग्रति ।
गार्हपत्यो ह वा एषोऽपानो व्यानोऽन्वाहार्यपचनो
यद्गार्हपत्यात् प्रणीयते प्रणयनादाहवनीयःप्राणः ॥ ४.३॥
[सुषिप्तिकाल में] इस शरीर रूप पुर में प्राणाग्नि ही जागते हैं। यह अपान ही गार्हपत्य अग्नि है, व्यान अन्वाहार्यपचन है तथा जो गार्हपत्य से ले जाया जाता है वह प्राण ही प्रणयन (ले जाये जाने)के कारण आहवनीय अग्नि है॥३॥
यदुच्छ्वासनिःश्वासावेतावाहुती समं नयतीति स समानः ।
मनो ह वाव यजमानः । इष्टफलमेवोदानः ।
स एनं यजमानमहरहर्ब्रह्म गमयति ॥ ४.४॥
क्योंकि उच्छ्वास और नि:श्वास ये मानो अग्निहोत्र की आहुतियाँ हैं, उन्हें जो [शरीर को स्थिति के लिये] समभाव से विभक्त करता है वह समान [ऋत्विक् है], मन ही निश्चय यजमान है, और इष्टफल ही उदान है: वह उदान इस मन रूप यजमान को नित्यप्रति ब्रह्मा के पास पहुँचा देता है॥ ४॥
अत्रैष देवः स्वप्ने महिमानमनुभवति ।
यद्दृष्टं दृष्टमनुपश्यति श्रुतं श्रुतमेवार्थमनुश्रृणोति
देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं पुनः पुनः प्रत्यनुभवति दृष्टं
चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं चानुभूतं चाननुभूतं च
सच्चासच्च सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति ॥ ४.५॥
इस स्वप्नावस्था में यह देव अपनी विभूति का अनुभव करता है। इसके द्वारा [जाग्रत्-अवस्था में] जो देखा हुआ होता है उस देखे हुए को ही यह देखता है, सुनी-सुनी बातों को ही सुनता है तथा दिशा-विदिशाओं में अनुभव किये हुए को ही पुन:-पुनः अनुभव करता है। [अधिक क्या यह देखे, बिना देखे, सुने, बिना सुने, अनुभव किये, बिना अनुभव किये तथा सत् और असत् सभी प्रकार के पदार्थों को देखता है और स्वयं भी सर्वरूप होकर देखता है॥५॥
स यदा तेजसाऽभिभूतो भवति ।
अत्रैष देवः स्वप्नान्न पश्यत्यथ
यदैतस्मिञ्शरीर एतत्सुखं भवति ॥ ४.६॥
जिस समय यह मन तेज से आक्रान्त होता है उस समय यह आत्मदेव स्वप्न नहीं देखता। उस समय इस शरीर में यह सुख होता है॥६॥
स यथा सोम्य वयांसि वसोवृक्षं सम्प्रतिष्ठन्ते ।
एवं ह वै तत् सर्वं पर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥ ४.७॥
हे सोम्य! जिस प्रकार पक्षी अपने बसेरे के वृक्ष पर जाकर बैठ जाते हैं उसी प्रकार वह सब (कार्यकरणसंघात) सबसे उत्कृष्ट आत्मा में जाकर स्थित हो जाता है ॥ ७॥
पृथिवी च पृथिवीमात्रा चापश्चापोमात्रा च तेजश्च तेजोमात्रा च
वायुश्च वायुमात्रा चाकाशश्चाकाशमात्रा च चक्षुश्च द्रष्टव्यं
च श्रोत्रं च श्रोतव्यं च घ्राणं च घ्रातव्यं च रसश्च
रसयितव्यं च त्वक्च स्पर्शयितव्यं च वाक्च वक्तव्यं च हस्तौ
चादातव्यं चोपस्थश्चानन्दयितव्यं च पायुश्च विसर्जयितव्यं च
यादौ च गन्तव्यं च मनश्च मन्तव्यं च बुद्धिश्च बोद्धव्यं
चाहङ्कारश्चाहङ्कर्तव्यं च चित्तं च चेतयितव्यं च तेजश्च
विद्योतयितव्यं च प्राणश्च विधारयितव्यं च ॥ ४.८॥
पृथिवी और पृथिवीमात्रा (गन्धतन्मात्रा), जल और रसतन्मात्रा, तेज और रूपतन्मात्रा, वायु और स्पर्शतन्मात्रा, आकाश और शब्दतन्मात्रा, नेत्र और द्रष्टव्य (रूप), श्रोत्र और श्रोतव्य (शब्द).प्राण और घ्रातव्य (गन्ध), रसना और रसयितव्य (रस), त्वचा और स्पर्श योग्य पदार्थ, हाथ और ग्रहण करने योग्य वस्तु, उपस्थ और आनन्दयितव्य, पायु और विसर्जनीय, पाद और गन्तव्य स्थान, मन और मनन करने योग्य, बुद्धि और बोद्धव्य, अहङ्कार और अहङ्कार का विषय, चित्त और चेतनीय, तेज और प्रकाश्य पदार्थ तथा प्राण और धारण करने योग्य वस्तु [ये सभी आत्मा में लीन हो जाते है]॥ ८॥
एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता मन्ता बोद्धा कर्ता
विज्ञानात्मा पुरुषः । स परेऽक्षर आत्मनि सम्प्रतिष्ठते ॥ ४.९॥
यही द्रष्टा, स्प्रष्टा, श्रोता, माता, रसयिता, मन्ता (मनन करने वाला), बोद्धा और कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है। वह पर अक्षर आत्मा में सम्यक् प्रकार से स्थित हो जाता है॥ ९॥
परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते स यो ह वै तदच्छायमशरीरमलोहितं
शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य । स सर्वज्ञः सर्वो भवति ।
तदेष श्लोकः ॥ ४.१०॥
हे सोम्य। इस छायाहीन, अशरीरी, अलोहित, शुभ अक्षर को जो पुरुष जानता है वह पर अक्षर को ही प्राप्त हो जाता है। वह सर्वज्ञ और सर्वरूप हो जाता है। इस सम्बन्ध में यह श्लोक (मन्त्र) है॥ १०॥
विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः प्राणा भूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य स सर्वज्ञः सर्वमेवाविवेशेति ॥ ४.११॥
हे सोम्य! जिस अक्षर में समस्त देवों के सहित विज्ञानात्मा प्राण और भूत सम्यक् प्रकार से स्थित होते हैं उसे जो जानता है यह सर्वज्ञ सभी में प्रवेश कर जाता है॥ ११॥
इति प्रश्नोपनिषद् चतुर्थः प्रश्नः ॥
प्रश्नोपनिषद् पञ्चमः प्रश्नः
अथ हैनं शैब्यः सत्यकामः पप्रच्छ ।
स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायीत ।
कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति ॥ ५.१॥
तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से शिविपुत्र सत्यकाम ने पूछा-‘भगवन्! मनुष्यों में जो पुरुष प्राणप्रयाणपर्यन्त इस ओङ्कार का चिन्तन करे, वह उस (ओङ्कारोपासना)-से किस लोक को जीत लेता है?’॥१॥
तस्मै स होवाच एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः ।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति ॥ ५.२॥
उससे उस पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम! यह जो ओङ्कार है वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है। अत: विद्वान् इसी के आश्रय से उनमें से किसी एक [ब्रह्म]-को प्राप्त हो जाता है॥२॥
स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव संवेदितस्तूर्णमेव
जगत्यामभिसम्पद्यते । तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र
तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानमनुभवति ॥ ५.३॥
वह यदि एकमात्रा विशिष्ट ओङ्कार का ध्यान करता है तो उसी से बोध को प्राप्त कर तुरंत ही संसार को प्राप्त हो जाता है। उसे ऋचाएँ मनुष्यलोक में ले जाती हैं। वहाँ वह तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमा का अनुभव करता है॥३॥
अथ यदि द्विमात्रेण मनसि सम्पद्यते सोऽन्तरिक्षं
यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकम् ।
स सोमलोके विभुतिमनुभूय पुनरावर्तते ॥ ५.४॥
और यदि वह द्विमात्रा विशिष्ट ओङ्कार के चिन्तन द्वारा मन से एकत्व को प्राप्त हो जाता है तो उसे यजुःश्रुतियाँ अन्तरिक्ष स्थित सोमलोक में ले जाती हैं। तदनन्तर सोमलोक में विभूति का अनुभव कर वह फिर लौट आता है॥ ४॥
यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं
पुरुषमभि-ध्यायीत स तेजसि सूर्ये सम्पन्नः ।
यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्मुच्यत एवं ह वै स
पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं
स एतस्माज्जीवघनात् परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते ।
तदेतौ श्लोकौ भवतः ॥ ५.५॥
किन्तु जो उपासक त्रिमात्रा विशिष्ट ‘ॐ’ इस अक्षर द्वारा इस परमपुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्यलोक को प्राप्त होता है। सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है। वह सामश्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और इस जीवनघन से भी उत्कृष्ट इदय स्थित परम पुरुष का साक्षात्कार करता है। इस सम्बन्ध में ये दो श्लोक हैं॥ ५॥
तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता
अन्योन्यसक्ताः अनविप्रयुक्ताः ।
क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु
सम्यक् प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः ॥ ५.६॥
ओङ्कार को तीनों मात्राएँ [पृथक्-पृथक् रहने पर मृत्यु से युक्त हैं। ये [ध्यान-क्रिया में] प्रयुक्त होती हैं और परस्पर सम्बद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग न किया गया हो-ऐसी) हैं। इस प्रकार बाह्य (जाग्रत्), आभ्यन्तर (सुषुप्ति) और मध्यम (स्वप्नास्थानीय) क्रियाओं में उनका सम्यक् प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता ॥ ६॥
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत् तत् कवयो वेदयन्ते ।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति ॥ ५.७॥
साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विज्ञजन जानते हैं तथा उस ओङ्कार रूप आलम्बन के द्वारा ही विद्वान् उस लोक को प्राप्त होता है जो शान्त, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है॥ ७॥
इति प्रश्नोपनिषद् पञ्चमः प्रश्नः ॥
प्रश्नोपनिषद् षष्ठः प्रश्नः
अथ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ ।
भगवन् हिरण्यनाभःकौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत ।
षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ ।
तमहं कुमारमब्रुवं नाहमिमं वेद ।
यद्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति ।
समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति तस्मान्नार्हम्यनृतं वक्तुम् ।
स तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज ।
तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष इति ॥ ६.१॥
तदनन्तर उन पिप्पलादाचार्य से भरद्वाज के पुत्र सुकेशा ने पूछा-“भगवन् । कोसलदेश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछा था-‘भारद्वाज! क्या तू सोलह कलाओं वाले पुरुष को जानता है?’ तब मैंने उस कुमार से कहा-‘मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता? जो पुरुष मिथ्या भाषण करता है वह सब ओर से मूलसहित सूख जाता है; अत: मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।’ तब वह चुपचाप रथ पर चढ़कर चला गया। सो अब मैं आपसे उसके विषय में पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है?”॥ १॥
तस्मै स होवाच।
इहैवान्तःशरीरे सोम्य स पुरुषो
यस्मिन्नताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति ॥ ६.२॥
उससे आचार्य पिप्पलाद ने कहा-‘हे सोम्य ! जिसमें इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है॥२॥
स ईक्षांचक्रे ।
कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि
कस्मिन्वा प्रतिष्ठिते प्रतिष्ठास्यामीति ॥ ६.३॥
उसने विचार किया कि किसके उत्क्रमण करने पर मैं भी उत्क्रमण कर जाऊँगा और किसके स्थित रहने पर मैं स्थित रहूंगा? ॥ ३॥
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनः ।
अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥ ६.४॥
उस पुरुष ने प्राण को रचा; फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथिवी, इन्द्रिय, मन और अन्न को तथा अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोकों को एवं लोकों में नाम को उत्पन्न किया ॥ ४॥
स यथेमा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं
गच्छन्ति भिद्येते तासां नामरूपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते ।
एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं
गच्छन्ति भिद्येते चासां नामरूपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते
स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥ ६.५॥
वह [दृष्टान्त] इस प्रकार है-जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद में पहुँचकर अस्त हो जाती है, उनके नाम रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘समुद्र’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं। इसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है. उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती हैं। उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं और वे ‘पुरुष’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं। वह विद्वान् कलाहीन और अमर हो जाता है। इस सम्बन्ध में यह श्लोक प्रसिद्ध है॥ ५॥
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिताः ।
तं वेद्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥ ६.६॥
जिसमें रथ की नाभि में अरों के समान सब कलाएँ आश्रित हैं, उस ज्ञातव्य पुरुष को तुम जानो; जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुँचा सके॥६॥
तान् होवाचैतावदेवाहमेतत् परं ब्रह्म वेद ।
नातःपरमस्तीति ॥ ६.७॥
तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)-ने कहा-इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ। इससे अन्य और कुछ [ज्ञातव्य] नहीं है ॥ ७ ॥
ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता
योऽस्माकमविद्यायाः परं पारं तारयसीति ।
नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ६.८॥
तब उन्होंने उनकी पूजा करते हुए कहा-आप तो हमारे पिता हैं जिन्होंने कि हमें अविद्या के दूसरे पार पर पहुंचा दिया है: आप परमर्षि को हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो॥ ८॥
इति प्रश्नोपनिषद् षष्ठः प्रश्नः ॥
शान्तिपाठ
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाΰसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
इति प्रश्नोपनिषद् समाप्त।