प्रश्नोपनिषद् || Prashnopanishad || Prashn Upanishad || Prashna Upnishad

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प्रश्नोपनिषद् -जैसे की यह नाम से ही विदित होता है प्रश्न+उपनिषद अर्थात एक ऐसा उपनिषद जिसमें की कुछ प्रश्न किया गया है और फिर उन प्रश्नों के उत्तर दिया गया है।

 

प्रश्नोपनिषद् संदर्भ

प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेदीय शाखा के अन्तर्गत एक उपनिषद है। यह उपनिषद संस्कृत भाषा में लिखित है। इसके रचियता वैदिक काल के ऋषियों को माना जाता है परन्तु मुख्यत वेदव्यास जी को कई उपनिषदों का लेखक माना जाता है। प्रश्नोपनिषद् के प्रवक्ता आचार्य पिप्पलाद थे जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे।
प्रश्नोपनिषद् विषयवस्तु

सुकेशा, सत्यकाम, सौर्यायणि गार्ग्य, कौसल्य, भार्गव और कबंधी, इन छह ब्रह्मजिज्ञासुओं ने इनसे ब्रह्मनिरूपण की अभ्यर्थना करने के उपरांत उसे हृदयंगम करने की पात्रता के लिये आचार्य के आदेश पर वर्ष पर्यंत ब्रह्मचर्यपूर्वक तपस्या करके पृथक्-पृथक् एक एक प्रश्न किया। पिप्पलाद के सविस्तार उत्तरों के सहित इन छह प्रश्नों के नाम का यह उपनिषद का पूरक बतलाया जाता है। इसके प्रथम तीन प्रश्न अपरा विद्या विषयक तथा शेष परा विद्या संबंधी हैं।

प्रथम प्रश्न प्रजापति के रथि और प्राण की ओर उनसे सृष्टि की उत्पत्ति बतलाकर आचार्य ने द्वितीय प्रश्न में प्राण के स्वरूप का निरूपण किया है और समझाया है कि वह स्थूल देह का प्रकाशक धारयिता एवं सब इंद्रियों से श्रेष्ठ है। तीसरे प्रश्न में प्राण की उत्पत्ति तथा स्थिति का निरूपण करके पिप्पलाद ने कहा है कि मरणकाल में मनुष्य का जैसा संकल्प होता है उसके अनुसार प्राण ही उसे विभिन्न लोकों में ले जाता है।

चौथे प्रश्न में पिप्पलाद ने यह निर्देश किया है कि स्वप्नावस्था में श्रोत्रादि इंद्रियों के मन मे लय हो जाने पर प्राण जाग्रत रहता है तथा सुषुप्ति अवस्था में मन का आत्मा में लय हो जाता है। वही द्रष्टा, श्रोता, मंता, विज्ञाता इत्यादि है जो अक्षर ब्रह्म का सोपाधिक स्वरूप है। इसका ज्ञान होने पर मनुष्य स्वयं सर्वज्ञ, सर्वस्वरूप, परम अक्षर हो जाता है।

पाँचवे प्रश्न में ओंकार में ब्रह्म की एकनिष्ठ उपासना के रहस्य में बतलाया गया है कि उसकी प्रत्येक मात्रा की उपासना सद्गति प्रदायिनी है एवं सपूर्ण ॐ का एकनिष्ठ उपासक कैचुल निर्मुक्त सर्प की तरह पापों से नियुक्त होकर अंत में परात्पर पुरुष का साक्षात्कार करता है।

अंतिम छठे प्रश्न में आचार्य पिप्पलाद ने दिखाया है कि इसी शरीर के हृदय पुंडरीकांश में सोलहकलात्मक पुरुष का वास है। ब्रह्म की इच्छा, एवं उसी से प्राण, उससे श्रद्धा, आकाश, वाय, तेज, जल, पृथिवी, इंद्रियाँ, मन और अन्न, अन्न से वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक और नाम उत्पन्न हुए हैं जा उसकी सोलह कलाएँ और सोपाधिक स्वरूप हैं। सच्चा ब्रहृम निर्विशेष, अद्वय और विशुद्ध है। नदियाँ समुद्र में मिलकर जैसे अपने नाम रूप का उसी में लय कर देती हैं पुरुष भी ब्रह्म के सच्चे स्वरूप को पहचानकर नामरूपात्मक इन कलाओं से मुक्त होकर निष्कल तथा अमर हो जाता है।

प्रश्नोपनिषद् भाग

प्रश्नोपनिषद् छः प्रश्नों को लेकर या यह कहे की इनका एक-एक प्रश्नों को लेकर एक-एक अध्याय बना है। इस प्रकार प्रश्नोपनिषद् छः भागों में बना है जिसके की प्रथम व अंत के अध्याय में शांति पाठ दिया गया है। अतः पाठकों के लाभार्थ यहाँ प्रश्नोपनिषद् श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद दिया जा रहा है। जिसे की तीन प्रश्नों को लेकर प्रश्नोपनिषद् प्रथम भाग के रूप में श्लोक सहित हिन्दी अनुवाद,उसके बाद शेष तीन प्रश्नों को लेकर प्रश्नोपनिषद् द्वितीय भाग के रूप में क्रमशः दिया जा रहा है।

|| अथ प्रश्नोपनिषद् सारांश ||

पहला प्रश्न

कात्यायन कबन्धी-‘भगवन! यह प्रजा किससे उत्पन्न होती है?’

महर्षि पिप्पलाद-‘प्रजा-वृद्धि की इच्छा करने वाले प्रजापति ब्रह्मा ने ‘रयि’ और ‘प्राण’ नामक एक युगल से प्रजा की उत्पन्न कराई।’

वस्तुत: प्राण गति प्रदान करने वाला चेतन तत्त्व है। रयि उसे धारण करके विविध रूप देने में समर्थ प्रकृति है। इस प्रकार ब्रह्मा मिथुन-कर्म द्वारा सृष्टि को उत्पन्न करता है।

दूसरा प्रश्न

ऋषि भार्गव-‘हे भगवन! प्रजा धारण करने वाले देवताओं की संख्या कितनी है और उनमें वरिष्ठ कौन है?’

महर्षि पिप्पलाद-‘पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन, प्राण, वाणी, नेत्र और श्रोत्र आदि सभी देव हैं। ये जीव के आश्रयदाता है। सभी देवताओं में प्राण ही सर्वश्रेष्ठ है। सभी इन्द्रियां प्राण के आश्रय में ही रहती हैं।’

तीसरा प्रश्न

कौसल्य आश्वलायन—’हे महर्षि! इस ‘प्राण’ की उत्पत्ति कहां से होती है, यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है और कैसे बाहर निकल जाता है तथा कैसे दोनों के मध्य रहता है?’

महर्षि पिप्पलाद—’ इस प्राण की उत्पत्ति आत्मा से होती है। जैसे शरीर की छाया शरीर से उत्पन्न होती है और उसी में समा जाती है, उसी प्रकार प्राण आत्मा से प्रकट होता है और उसी में समा जाता है। वह प्राण मन के संकल्प से शरीर में प्रवेश करता है। मरणकाल में यह आत्मा के साथ ही बाहर निकलकर दूसरी योनियों में चला जाता है।’

चौथा प्रश्न

गार्ग्य ऋषि-‘ हे भगवन! इस पुरुष देह में कौन-सी इन्द्री शयन करती है और कौन-सी जाग्रत रहती है? कौन-सी इन्द्री स्वप्न देखती है और कौन-सी सुख अनुभव करती है? ये सब किसमें स्थित है?’

महर्षि पिप्पलाद—’हे गार्ग्य! जिस प्रकार सूर्य की रश्मियां सूर्य के अस्त होते ही सूर्य में सिमट जाती हैं और उसके उदित होते ही पुन: बिखर जाती हैं उसी प्रकार समस्त इन्द्रियां परमदेव मन में एकत्र हो जाती हैं। तब इस पुरुष का बोलना-चालना, देखना-सुनना, स्वाद-अस्वाद, सूंघना-स्पर्श करना आदि सभी कुछ रूक जाता है। उसकी स्थिति सोये हुए व्यक्ति-जैसी हो जाती है।’

‘सोते समय प्राण-रूप अग्नि ही जाग्रत रहती है। उसी के द्वारा अन्य सोई हुई इन्द्रियां केवल अनुभव मात्र करती हैं, जबकि वे सोई हुई होती हैं।’

पांचवां प्रश्न

सत्यकाम—’हे भगवन! जो मनुष्य जीवन भर ‘ॐ’ का ध्यान करता है, वह किस लोक को प्राप्त करता है?’

महर्षि पिप्पलाद—’हे सत्यकाम! यह ‘ॐकार’ ही वास्तव में ‘परब्रह्म’ है। ‘ॐ’ का स्मरण करने वाला ब्रह्मलोक को ही प्राप्त करता है। यह तेजोमय सूर्यलोक ही ब्रह्मलोक है।’

छठा प्रश्न

सुकेशा भारद्वाज—’हे भगवन! कौसल देश के राजपुरुष हिरण्यनाभ ने सोलह कलाओं से युक्त पुरुष के बारे में मुझसे प्रश्न किया था, परन्तु मैं उसे नहीं बता सका। क्या आप किसी ऐसे पुरुष के विषय में जानकारी रखते हैं?’

महर्षि पिप्पलाद—’हे सौम्य! जिस पुरुष में सोलह कलाएं उत्पन्न होती हैं, वह इस शरीर में ही विराजमान है। उस पुरुष ने सर्वप्रथम ‘प्राण’ का सृजन किया। तदुपरान्त प्राण से ‘श्रद्धा’, ‘आकाश’, ‘वायु’, ‘ज्योति’, ‘पृथ्वी’, ‘इन्द्रियां’, ‘मन’ और ‘अन्न’ का सृजन किया। अन्न से ‘वीर्य’ , ‘तप’, ‘मन्त्र’, ‘कर्म’, ‘लोक’ एवं ‘नाम’ आदि सोलह कलाओं का सृजन किया।’

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