श्रीहरि स्तुति Shri Hari Stuti महादेवकृत श्रीहरि स्तुति

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श्रीहरि स्तुति;- जब भगवान् शंकर ने यह सुना कि श्रीहरि ने स्त्री का रूप धारण करके असुरों को मोहित कर लिया और देवताओं को अमृत पिला दिया, तब वे सती देवी के साथ बैल पर सवार हो समस्त भूतगणों को लेकर वहाँ गये, जहाँ भगवान् मधुसूदन निवास करते हैं। भगवान् श्रीहरि ने बड़े प्रेम से गौरी-शंकर भगवान् का स्वागत-सत्कार किया। वे भी सुख से बैठकर भगवान् का सम्मान करके मुसकराते हुए बोले।

श्रीमहादेव उवाच

देवदेव जगद्व्यापिन् जगदीश जगन्मय ।

सर्वेषामपि भावानां त्वमात्मा हेतुरीश्वरः ॥ ४॥

श्रीमहादेव जी ने कहा ;- ‘समस्त देवों के आराध्यदेव! आप विश्वव्यापी, जगदीश्वर एवं जगत्स्वरूप हैं। समस्त चराचर पदार्थों के मूल कारण, ईश्वर और आत्मा भी आप ही हैं।

आद्यन्तावस्य यन्मध्यमिदमन्यदहं बहिः ।

यतोऽव्ययस्य नैतानि तत्सत्यं ब्रह्म चिद्भवान् ॥ ५॥

इस जगत् के आदि, अन्त और मध्य आपसे ही होते हैं; परन्तु आप आदि, मध्य और अन्त से रहित हैं। आपके अविनाशीस्वरूप द्रष्टा, दृश्य, भक्ता और भोग्य का भेदभाव नहीं है। वास्तव में आप सत्य, चिन्मात्र ब्रह्म ही हैं।

तवैव चरणाम्भोजं श्रेयस्कामा निराशिषः ।

विसृज्योभयतः सङ्गं मुनयः समुपासते ॥ ६॥

कल्याणकामी महात्मा लोग इस लोक और परलोक दोनों की आसक्ति एवं समस्त कामनाओं का परित्याग करके आपके चरणकमलों की ही आराधना करते हैं।

त्वं ब्रह्म पूर्णममृतं विगुणं विशोक-

मानन्दमात्रमविकारमनन्यदन्यत् ।

विश्वस्य हेतुरुदयस्थितिसंयमाना-

मात्मेश्वरश्च तदपेक्षतयानपेक्षः ॥ ७॥

आप अमृतस्वरूप, समस्त प्राकृत गुणों से रहित, शोक की छाया से भी दूर, स्वयं परिपूर्ण ब्रह्म हैं। आप केवल आनन्दस्वरूप हैं। आप निर्विकार हैं। आपसे भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु आप सबसे भिन्न हैं। आप विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के परम कारण हैं। आप समस्त जीवों के शुभाशुभ कर्म का फल देने वाले स्वामी हैं। परन्तु यह बात भी जीवों की अपेक्षा से ही कही जाती है; वास्तव में आप सबकी अपेक्षा से रहित, अनपेक्ष हैं।

एकस्त्वमेव सदसद्द्वयमद्वयं च

स्वर्णं कृताकृतमिवेह न वस्तुभेदः ।

अज्ञानतस्त्वयि जनैर्विहितो विकल्पो

यस्माद्गुणव्यतिकरो निरुपाधिकस्य ॥ ८॥

स्वामिन्! कार्य और कारण, द्वैत और अद्वैत- जो कुछ है, वह सब एकमात्र आप ही हैं; ठीक वैसे ही जैसे आभूषणों के रूप में स्थित सुवर्ण और मूल सुवर्ण में कोई अन्तर नहीं हैं, दोनों एक ही वस्तु हैं। लोगों ने आपके वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण आप में नाना प्रकर के भेदभाव और विकल्पों की कल्पना कर रखी है। यही कारण है कि आप में किसी प्रकार की उपाधि न होने पर भी गुणों को लेकर भेद की प्रतीति होती है।

त्वां ब्रह्म केचिदवयन्त्युत धर्ममेके

एके परं सदसतोः पुरुषं परेशम् ।

अन्येऽवयन्ति नवशक्तियुतं परं त्वां

केचिन्महापुरुषमव्ययमात्मतन्त्रम् ॥ ९॥

प्रभो! कोई-कोई आपको ब्रह्म समझते हैं, तो दूसरे आपको धर्म कहकर वर्णन करते हैं। इसी प्रकार कोई आपको प्रकृति और पुरुष से परे परमेश्वर मानते हैं तो कोई विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्यी, सत्या, ईशाना और अनुग्रहा- इन नौ शक्तियों से युक्त परम पुरुष तथा दूसरे क्लेश-कर्म आदि के बन्धन से रहित, पूर्वजों के भी पूर्वज, अविनाशी पुरुष विशेष के रूप में मानते हैं।

नाहं परायुरृषयो न मरीचिमुख्या

जानन्ति यद्विरचितं खलु सत्त्वसर्गाः ।

यन्मायया मुषितचेतस ईश दैत्य-

मर्त्यादयः किमुत शश्वदभद्रवृत्ताः ॥ १०॥

प्रभो! मैं, ब्रह्मा, मरीचि और ऋषि-जो सत्त्वगुण की सृष्टि के अन्तर्गत हैं-जब आपकी बनायी हुई सृष्टि का भी रहस्य नहीं जान पाते, तब आपको तो जान ही कैसे सकते हैं। फिर जिनका चित्त माया ने अपने वश में कर रखा है और जो सर्वदा रजोगुणी और तमोगुणी कर्मों में लगते रहते हैं, वे असुर और मनुष्य आदि तो भला जानेंगे ही क्या।

स त्वं समीहितमदः स्थितिजन्मनाशं

भूतेहितं च जगतो भवबन्धमोक्षौ ।

वायुर्यथा विशति खं च चराचराख्यं

सर्वं तदात्मकतयावगमोऽवरुन्त्से ॥ ११॥

प्रभो! आप सर्वात्मा एवं ज्ञानस्वरूप हैं। इसीलिये वायु के समान आकाश में अदृश्य रहकर भी आप सम्पूर्ण चराचर जगत् में सदा-सर्वदा विद्यमान रहते हैं तथा इसकी चेष्टा, स्थिति, जन्म, नाश, प्राणियों के कर्म एवं संसार के बन्धन, मोक्ष-सभी को जानते हैं।

अवतारा मया दृष्टा रममाणस्य ते गुणैः ।

सोऽहं तद्द्रष्टुमिच्छामि यत्ते योषिद्वपुर्धृतम् ॥ १२॥

प्रभो! आप जब गुणों को स्वीकार करके लीला करने के लिये बहुत-से अवतार ग्रहण करते हैं, तब मैं उनका दर्शन करता ही हूँ। अब मैं आपके उस अवतार का भी दर्शन करना चाहता हूँ, जो आपने स्त्रीरूप में ग्रहण किया था।

इति श्रीमद्भागवतमहापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे महादेवकृत श्रीहरिस्तुति नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥

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