ब्रह्मा स्तुति हिरण्यकशिपुरुवाच Brahma Stuti Hiranyakshipuruvach

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ब्रह्मा जी समस्त वरदाताओं में श्रेष्ठ हैं। इस ब्रह्मा स्तुति का नित्य पाठ करने से मनुष्य सभी बाधाओं से पूर्ण सुरक्षित हो जाता है और अक्षय ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।

|| ब्रह्मा स्तुति: ||

ब्रह्मा जी हिरण्यकशिपु की तपस्या से प्रसन्न होकर प्रगट हुए । उसने देखा कि आकाश में हंस पर चढ़े हुए ब्रह्मा जी खड़े हैं। उन्हें देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। अपना सिर पृथ्वी पर रखकर उसने उनको नमस्कार किया। फिर अंजलि बाँधकर नम्रभाव से खड़ा हुआ और बड़े प्रेम से अपने निर्निमेष नयनों से उन्हें देखता हुआ गद्गद वाणी से स्तुति करने लगा। उस समय उसके नेत्रों में आनन्द के आँसू उमड़ रहे थे और सारा शरीर पुलकित हो रहा था।

हिरण्यकशिपुरुवाच

कल्पान्ते कालसृष्टेन योऽन्धेन तमसाऽऽवृतम् ।

अभिव्यनग्जगदिदं स्वयञ्ज्योतिः स्वरोचिषा ॥ १ ॥

हिरण्यकशिपु ने कहा ;- कल्प के अन्त में यह सारी सृष्टि काल के द्वारा प्रेरित तमोगुण से, घने अन्धकार से ढक गयी थी। उस समय स्वयंप्रकाशस्वरूप आपने अपने तेज से पुनः इसे प्रकट किया।

आत्मना त्रिवृता चेदं सृजत्यवति लुम्पति ।

रजःसत्त्वतमोधाम्ने पराय महते नमः ॥ २ ॥

आप ही अपने त्रिगुणमयरूप से इसकी रचना, रक्षा और संहार करते हैं। आप रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुण के आश्रय हैं। आप ही सबसे परे और महान् हैं। आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

नम आद्याय बीजाय ज्ञानविज्ञानमूर्तये ।

प्राणेन्द्रियमनोबुद्धिविकारैर्व्यक्तिमीयुषे ॥ ३ ॥

आप ही जगत् के मूल कारण हैं। ज्ञान और विज्ञान आपकी मूर्ति हैं। प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि विकारों के द्वारा आपने अपने को प्रकट किया है।

त्वमीशिषे जगतस्तस्थुषश्च

प्राणेन मुख्येन पतिः प्रजानाम् ।

चित्तस्य चित्तेर्मन ऐन्द्रियाणां

पतिर्महान् भूतगुणाशयेशः ॥ ४ ॥

आप मुख्य प्राण सूत्रात्मा के रूप से चराचर जगत् को अपने नियन्त्रण में रखते हैं। आप ही प्रजा के रक्षक भी हैं। भगवन्! चित्त, चेतना, मन और इन्द्रियों के स्वामी आप ही हैं। पंचभूत, शब्दादि विषय और उनके संस्कारों के रचयिता भी महत्तत्त्व के रूप में आप ही हैं।

त्वं सप्ततन्तून् वितनोषि तन्वा

त्रय्या चातुर्होत्रकविद्यया च ।

त्वमेक आत्माऽऽत्मवतामनादि-

रनन्तपारः कविरन्तरात्मा ॥ ५ ॥

जो वेद होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा और उद्गाता-इन ऋत्विजों से होने वाले यज्ञ का प्रतिपादन करते हैं, वे आपके ही शरीर हैं। उन्हीं के द्वारा अग्निष्टोम आदि सात यज्ञों का आप विस्तार करते हैं। आप ही सम्पूर्ण प्राणियों के आत्मा हैं। क्योंकि आप अनादि, अनन्त, अपार, सर्वज्ञ और अन्तर्यामी हैं।

त्वमेव कालोऽनिमिषो जनाना-

मायुर्लवाद्यावयवैः क्षिणोषि ।

कूटस्थ आत्मा परमेष्ठ्यजो महांस्त्वं

जीवलोकस्य च जीव आत्मा ॥ ६ ॥

आप ही काल हैं। आप प्रतिक्षण सावधान रहकर अपने क्षण, लव आदि विभागों के द्वारा लोगों की आयु क्षीण करते रहते हैं। फिर भी आप निर्विकार हैं। क्योंकि आप ज्ञानस्वरूप, परमेश्वर, अजन्मा, महान् और सम्पूर्ण जीवों के जीवनदाता अन्तरात्मा हैं।

त्वत्तः परं नापरमप्यनेजदेजच्च

किञ्चिद्व्यतिरिक्तमस्ति ।

विद्याः कलास्ते तनवश्च सर्वा

हिरण्यगर्भोऽसि बृहत्त्रिपृष्ठः ॥ ७ ॥

प्रभो! कार्य, कारण, कल और अचल ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो आपसे भिन्न हो। समस्त विद्या और कलाएँ आपके शरीर हैं। आप त्रिगुणमयी माया से अतीत स्वयं ब्रह्म हैं। यह स्वर्णमय ब्रह्माण्ड आपके गर्भ में स्थित है। आप इसे अपने में से ही प्रकट करते हैं।

व्यक्तं विभो स्थूलमिदं शरीरं

येनेन्द्रियप्राणमनोगुणांस्त्वम् ।

भुङ्क्षे स्थितो धामनि पारमेष्ठ्ये

अव्यक्त आत्मा पुरुषः पुराणः ॥ ८ ॥

प्रभो! यह व्यक्त ब्रह्माण्ड आपका स्थूल शरीर है। इससे आप इन्द्रिय, प्राण और मन के विषयों का उपभोग करते हैं। किन्तु उस समय भी आप अपने परम ऐश्वर्यमय स्वरूप में ही स्थित रहते हैं। वस्तुतः आप पुराणपुरुष, स्थूल-सूक्ष्म से परे ब्रह्मस्वरूप ही हैं।

अनन्ताव्यक्तरूपेण येनेदमखिलं ततम् ।

चिदचिच्छक्तियुक्ताय तस्मै भगवते नमः ॥ ९ ॥

आप अपने अनन्त और अव्यक्त स्वरूप से सारे जगत् में व्याप्त हैं। चेतन और अचेतन दोनों ही आपकी शक्तियाँ हैं। भगवन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे ब्रह्मा स्तुति: तृतीयोऽध्यायः ॥

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