श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम || Shri Ram Charit Manas Ayodhyakand Pandrahavan Vishram

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श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम

श्री रामचरित मानस

द्वितीय सोपान (अयोध्याकांड)

मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं॥

राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू॥

माता के सामने सीता से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले – हे राजकुमारी! मेरी सिखावन सुनो। मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना।

आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू॥

आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई॥

जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनी! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है।

एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा॥

जब जब मातु करिहि सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी॥

आदरपूर्वक सास-ससुर के चरणों की पूजा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। जब-जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि भोली हो जाएगी (वे अपने-आपको भूल जाएँगी),

तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी॥

कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही॥

हे सुंदरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएँ कह-कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि! मुझे सैकड़ों सौगंध हैं, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूँ कि मैं तुम्हें केवल माता के लिए ही घर पर रखता हूँ।

दो० – गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।

हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस॥ 61॥

(मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म (के आचरण) का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है, किंतु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सब ने संकट ही सहे॥ 61॥

मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी॥

दिवस जात नहिं लागिहि बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा॥

हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूँगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुंदरी! हमारी यह सीख सुनो!

जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा॥

काननु कठिन भयंकरु भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी॥

हे वामा! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुःख पाओगी। वन बड़ा कठिन (क्लेशदायक) और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं।

कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना॥

चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे॥

रास्ते में कुश, काँटे और बहुत-से कंकड़ हैं। उन पर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरण-कमल कोमल और सुंदर हैं और रास्ते में बड़े-बड़े दुर्गम पर्वत हैं।

कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे॥

भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा॥

पर्वतों की गुफाएँ, खोह (दर्रे), नदियाँ, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता। रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे (भयानक) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है।

दो० – भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।

ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल॥ 62॥

जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा॥ 62॥

नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट बेष बिधि कोटिक करहीं॥

लागइ अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहिं जाइ बखानी॥

मनुष्यों को खानेवाले निशाचर (राक्षस) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपट-रूप धारण कर लेते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती।

ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा॥

डरपहिं धीर गहन सुधि आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ॥

वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री-पुरुषों को चुरानेवाले राक्षसों के झुंड-के-झुंड रहते हैं। वन की (भयंकरता) याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर हे मृगलोचनि! तुम तो स्वभाव से ही डरपोक हो!

हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू॥

मानस सलिल सुधाँ प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली॥

हे हंसगामिनी! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे (बुरा कहेंगे)। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है।

नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला॥

रहहु भवन अस हृदयँ बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी॥

नवीन आम के वन में विहार करनेवाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है? हे चंद्रमुखी! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो। वन में बड़ा कष्ट है।

दो० – सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करइ सिर मानि।

सो पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि॥ 63॥

स्वाभाविक ही हित चाहनेवाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है॥ 63॥

सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के॥

सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद निसि जैसें॥

प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीता के सुंदर नेत्र जल से भर गए। राम की यह शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हुई, जैसे चकवी को शरद ऋतु की चाँदनी रात होती है।

उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही॥

बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी॥

जानकी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रों के जल (आँसुओं) को जबरदस्ती रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीता हृदय में धीरज धरकर,

लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।

दीन्हि प्रानपति मोहि सिख सोई। जेहि बिधि मोर परम हित होई॥

सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं – हे देवि! मेरी इस बड़ी भारी ढिठाई को क्षमा कीजिए। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है, जिससे मेरा परम हित हो।

मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं॥

परंतु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत में कोई दुःख नहीं है।

दो० – प्राननाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान।

तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान॥ 64॥

हे प्राणनाथ! हे दया के धाम! हे सुंदर! हे सुखों के देनेवाले! हे सुजान! हे रघुकुलरूपी कुमुद के खिलानेवाले चंद्रमा! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिए नरक के समान है॥ 64॥

मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृद समुदाई॥

सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुसील सुखदाई॥

माता, पिता, बहन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन (बंधु-बांधव), सहायक और सुंदर, सुशील और सुख देनेवाला पुत्र – ।

जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते॥

तनु धनु धामु धरनि पुर राजू। पति बिहीन सबु सोक समाजू॥

हे नाथ! जहाँ तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सूर्य से भी बढ़कर तपानेवाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिए यह सब शोक का समाज है।

भोग रोगसम भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू॥

प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं॥

भोग रोग के समान हैं, गहने भार रूप हैं और संसार यम-यातना (नरक की पीड़ा) के समान है। हे प्राणनाथ! आपके बिना जगत में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है।

जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी॥

नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरद बिमल बिधु बदनु निहारें॥

जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! बिना पुरुष के स्त्री है। हे नाथ! आपके साथ रहकर आपका शरद-(पूर्णिमा) के निर्मल चंद्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे।

दो० – खग मृग परिजन नगरु बनु बलकल बिमल दुकूल।

नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल॥ 65॥

हे नाथ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुंबी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी (पत्तों की बनी झोपड़ी) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी॥ 65॥

बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा॥

कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई॥

उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-सँभार करेंगे, और कुशा और पत्तों की सुंदर साथरी (बिछौना) ही प्रभु के साथ कामदेव की मनोहर तोशक के समान होगी।

कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू॥

छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी॥

कंद, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे और (वन के) पहाड़ ही अयोध्या के सैकड़ों राजमहलों के समान होंगे। क्षण-क्षण में प्रभु के चरण कमलों को देख-देखकर मैं ऐसी आनंदित रहूँगी जैसे दिन में चकवी रहती है।

बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय बिषाद परिताप घनेरे॥

प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना॥

हे नाथ! आपने वन के बहुत-से दुःख और बहुत-से भय, विषाद और संताप कहे। परंतु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु (आप) के वियोग (से होनेवाले दुःख) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते।

अस जियँ जानि सुजान सिरोमनि। लेइअ संग मोहि छाड़िअ जनि॥

बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी॥

ऐसा जी में जानकर, हे सुजान शिरोमणि! आप मुझे साथ ले लीजिए, यहाँ न छोड़िए। हे स्वामी! मैं अधिक क्या विनती करूँ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जाननेवाले हैं।

दो० – राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान।

दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान॥ 66॥

हे दीनबंधु! हे सुंदर! हे सुख देनेवाले! हे शील और प्रेम के भंडार! यदि अवधि (चौदह वर्ष) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं, तो जान लीजिए कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे॥ 66॥

मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी॥

सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं॥

क्षण-क्षण में आपके चरण कमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने में थकावट न होगी। हे प्रियतम! मैं सभी प्रकार से आपकी सेवा करूँगी और मार्ग चलने से होनेवाली सारी थकावट को दूर कर दूँगी।

पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥

श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥

आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर – प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःख के लिए मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा।

सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥

बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥

समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी।

को प्रभु सँग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधुहि जिमि ससक सिआरा॥

मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू। तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू॥

प्रभु के साथ (रहते) मेरी ओर (आँख उठाकर) देखनेवाला कौन है (अर्थात कोई नहीं देख सकता)! जैसे सिंह की स्त्री (सिंहनी) को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूँ और नाथ वन के योग्य हैं? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय-भोग?

दो० – ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदउ बिलगान।

तौ प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पावँर प्रान॥ 67॥

ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय न फटा तो, हे प्रभु! (मालूम होता है) ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुःख सहेंगे॥ 67॥

अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी सँभारी॥

देखि दसा रघुपति जियँ जाना। हठि राखें नहिं राखिहि प्राना॥

ऐसा कहकर सीता बहुत ही व्याकुल हो गईं। वे वचन के वियोग को भी न सम्हाल सकीं। (अर्थात शरीर से वियोग की बात तो अलग रही, वचन से भी वियोग की बात सुनकर वे अत्यंत विकल हो गईं।) उनकी यह दशा देखकर रघुनाथ ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहाँ रखने से ये प्राणों को न रखेंगी।

कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोचु चलहु बन साथा॥

नहिं बिषाद कर अवसरु आजू। बेगि करहु बन गवन समाजू॥

तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी राम ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज विषाद करने का अवसर नहीं है। तुरंत वनगमन की तैयारी करो।

कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिष पाई॥

बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जननी निठुर बिसरि जनि जाई॥

राम ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीता को समझाया। फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। (माता ने कहा -) बेटा! जल्दी लौटकर प्रजा के दुःख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाए!

फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउँ नयन मनोहर जोरी।

सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जिअत बदन बिधु जोइहि॥

हे विधाता! क्या मेरी दशा भी फिर पलटेगी? क्या अपने नेत्रों से मैं इस मनोहर जोड़ी को फिर देख पाऊँगी? हे पुत्र! वह सुंदर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते-जी तुम्हारा चाँद-सा मुखड़ा फिर देखेगी!

दो० – बहुरि बच्छ कहि लालु कहि रघुपति रघुबर तात।

कबहिं बोलाइ लगाइ हियँ हरषि निरखिहउँ गात॥ 68॥

हे तात! ‘वत्स’ कहकर, ‘लाल’ कहकर, ‘रघुपति’ कहकर, ‘रघुवर’ कहकर, मैं फिर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊँगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूँगी!॥ 68॥

लखि सनेह कातरि महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी॥

राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेहु न जाइ बखाना॥

यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई हैं और इतनी अधिक व्याकुल हैं कि मुँह से वचन नहीं निकलता, राम ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता।

तब जानकी सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी॥

सेवा समय दैअँ बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हा॥

तब जानकी सास के पाँव लगीं और बोलीं – हे माता! सुनिए, मैं बड़ी ही अभागिनी हूँ। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया।

तजब छोभु जनि छाड़िअ छोहू। करमु कठिन कछु दोसु न मोहू॥

सुनिसिय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी॥

आप क्षोभ का त्याग कर दें, परंतु कृपा न छोड़िएगा। कर्म की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है। सीता के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गईं। उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखान कर कहूँ!

बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख आसिष दीन्ही॥

अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंग जमुन जल धारा॥

उन्होंने सीता को बार-बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जब तक गंगा और यमुना में जल की धारा बहे, तब तक तुम्हारा सुहाग अचल रहे।

दो० – सीतहि सासु आसीस सिख दीन्हि अनेक प्रकार।

चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार॥ 69॥

सीता को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएँ दीं और वे (सीता) बड़े ही प्रेम से बार-बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं॥ 69॥

समाचार जब लछिमन पाए। ब्याकुल बिलख बदन उठि धाए॥

कंप पुलक तन नयन सनीरा। गहे चरन अति प्रेम अधीरा॥

जब लक्ष्मण ने समाचार पाए, तब वे व्याकुल होकर उदास-मुँह उठ दौड़े। शरीर काँप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आँसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यंत अधीर होकर उन्होंने राम के चरण पकड़ लिए।

कहि न सकत कछु चितवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल तें काढ़े॥

सोचु हृदयँ बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा॥

वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े-खड़े देख रहे हैं। (ऐसे दीन हो रहे हैं) मानो जल से निकाले जाने पर मछली दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता! क्या होनेवाला है? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया?

मो कहुँ काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेहहिं साथा॥

राम बिलोकि बंधु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें॥

मुझको रघुनाथ क्या कहेंगे? घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे? राम ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा।

बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर॥

तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयँ परिनाम उछाहू॥

तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र राम वचन बोले – हे तात! परिणाम में होनेवाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ।

दो० – मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायँ।

लहेउ लाभु तिन्ह जनम कर नतरु जनमु जग जायँ॥ 70॥

जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत में जन्म व्यर्थ ही है॥ 70॥

अस जियँ जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई॥

भवन भरतु रिपुसूदनु नाहीं। राउ बृद्ध मम दुखु मन माहीं॥

हे भाई! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दुःख है।

मैं बन जाउँ तुम्हहि लेइ साथा। होइ सबहि बिधि अवध अनाथा॥

गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सब कहुँ परइ दुसह दुख भारू॥

इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जाएगी। गुरु, पिता, माता, प्रजा और परिवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़ेगा।

रहहु करहु सब कर परितोषू। नतरु तात होइहि बड़ दोषू॥

जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृपु अवसि नरक अधिकारी॥

अतः तुम यहीं रहो और सबका संतोष करते रहो। नहीं तो हे तात! बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है।

रहहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी॥

सिअरें बचन सूखि गए कैसें। परसत तुहिन तामरसु जैसें॥

हे तात! ऐसी नीति विचारकर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही लक्ष्मण बहुत ही व्याकुल हो गए! इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गए, जैसे पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है!

दो० – उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ।

नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु त काह बसाइ॥ 71॥

प्रेमवश लक्ष्मण से कुछ उत्तर देते नहीं बनता। उन्होंने व्याकुल होकर राम के चरण पकड़ लिए और कहा – हे नाथ! मैं दास हूँ और आप स्वामी हैं; अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है?॥ 71॥

दीन्हि मोहि सिख नीकि गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराईं॥

नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुँ ते अधिकारी॥

हे स्वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम (पहुँच के बाहर) लगी। शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं, जो धीर हैं और धर्म की धुरी को धारण करनेवाले हैं।

मैं सिसु प्रभु सनेहँ प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला॥

गुर पितु मातु न जानउँ काहू। कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥

मैं तो प्रभु (आप) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूँ! कहीं हंस भी मंदराचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं! हे नाथ! स्वभाव से ही कहता हूँ, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, पिता, माता किसी को भी नहीं जानता।

जहँ लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निजु गाई॥

मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

जगत में जहाँ तक स्नेह का संबंध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है – हे स्वामी! हे दीनबंधु! हे सबके हृदय के अंदर की जाननेवाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही हैं।

धरम नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही॥

मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई॥

धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए, जिसे कीर्ति, विभूति (ऐश्वर्य) या सद्गति प्यारी हो, किंतु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिंधु! क्या वह भी त्यागने के योग्य है?

दो० – करुनासिंधु सुबंधु के सुनि मृदु बचन बिनीत।

समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहँ सभीत॥ 72॥

दया के समुद्र राम ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया॥ 72॥

मागहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई॥

मुदित भए सुनि रघुबर बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बड़ि हानी॥

(और कहा -) हे भाई! जाकर माता से विदा माँग आओ और जल्दी वन को चलो! रघुकुल में श्रेष्ठ राम की वाणी सुनकर लक्ष्मण आनंदित हो गए। बड़ी हानि दूर हो गई और बड़ा लाभ हुआ!

हरषित हृदयँ मातु पहिं आए। मनहुँ अंध फिरि लोचन पाए॥

जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकि साथा॥

वे हर्षित हृदय से माता सुमित्रा के पास आए, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया, किंतु उनका मन रघुकुल को आनंद देनेवाले राम और जानकी के साथ था।

पूँछे मातु मलिन मन देखी। लखन कही सब कथा बिसेषी।

गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव जनु चहुँ ओरा॥

माता ने उदास मन देखकर उनसे (कारण) पूछा। लक्ष्मण ने सब कथा विस्तार से कह सुनाई। सुमित्रा कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गईं जैसे हिरनी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है।

लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एहिं सनेह सब करब अकाजू॥

मागत बिदा सभय सकुचाहीं। जाइ संग बिधि कहिहि कि नाहीं॥

लक्ष्मण ने देखा कि आज (अब) अनर्थ हुआ। ये स्नेह वश काम बिगाड़ देंगी! इसलिए वे विदा माँगते हुए डर के मारे सकुचाते हैं (और मन-ही-मन सोचते हैं) कि हे विधाता! माता साथ जाने को कहेंगी या नहीं।

दो० – समुझि सुमित्राँ राम सिय रूपु सुसीलु सुभाउ।

नृप सनेहु लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ॥ 73॥

सुमित्रा ने राम और सीता के रूप, सुंदर शील और स्वभाव को समझकर और उन पर राजा का प्रेम देखकर अपना सिर धुना (पीटा) और कहा कि पापिनी कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया॥ 73॥

धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी॥

तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥

परंतु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहनेवाली सुमित्रा कोमल वाणी से बोलीं – हे तात! जानकी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करनेवाले राम तुम्हारे पिता हैं!

अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥

जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं॥

जहाँ राम का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीताराम वन को जाते हैं, तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है।

गुर पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं॥

रामु प्रानप्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के॥

गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिए। फिर राम तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं।

पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥

अस जियँ जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू॥

जगत में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब राम के नाते से ही (पूजनीय और परम प्रिय) मानने योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत में जीने का लाभ उठाओ!

दो० – भूरि भाग भाजनु भयहु मोहि समेत बलि जाउँ।

जौं तुम्हरें मन छाड़ि छलु कीन्ह राम पद ठाउँ॥ 74॥

मैं बलिहारी जाती हूँ, (हे पुत्र!) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने छल छोड़कर राम के चरणों में स्थान प्राप्त किया है॥ 74॥

पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥

नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥

संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र रघुनाथ का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है।

तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं॥

सकल सुकृत कर बड़ फलु एहू। राम सीय पद सहज सनेहू॥

तुम्हारे ही भाग्य से राम वन को जा रहे हैं। हे तात! दूसरा कोई कारण नहीं है। संपूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि सीताराम के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो।

रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहुँ इन्ह के बस होहू॥

सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई॥

राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह – इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से सीताराम की सेवा करना।

तुम्ह कहुँ बन सब भाँति सुपासू। सँग पितु मातु रामु सिय जासू॥

जेहिं न रामु बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करेहु इहइ उपदेसू॥

तुमको वन में सब प्रकार से आराम है, जिसके साथ राम और सीता रूप पिता-माता हैं। हे पुत्र! तुम वही करना जिससे राम वन में क्लेश न पाएँ, मेरा यही उपदेश है।

छं० – उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं।

पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं॥

तुलसी प्रभुहि सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिष दई।

रति होउ अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित-नित नई॥

हे तात! मेरा यही उपदेश है (अर्थात तुम वही करना) जिससे वन में तुम्हारे कारण राम और सीता सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदास कहते हैं कि सुमित्रा ने इस प्रकार हमारे प्रभु (लक्ष्मण) को शिक्षा देकर (वन जाने की) आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि सीता और रघुवीर के चरणों में तुम्हारा निर्मल (निष्काम और अनन्य) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!

सो० – मातु चरन सिरु नाइ चले तुरत संकित हृदयँ।

बागुर बिषम तोराइ मनहुँ भाग मृगु भाग बस॥ 75॥

माता के चरणों में सिर नवाकर, हृदय में डरते हुए (कि अब भी कोई विघ्न न आ जाए) लक्ष्मण तुरंत इस तरह चल दिए जैसे सौभाग्यवश कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो॥ 75॥

गए लखनु जहँ जानकिनाथू। भे मन मुदित पाइ प्रिय साथू॥

बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृपमंदिर आए॥

लक्ष्मण वहाँ गए जहाँ जानकीनाथ थे और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। राम और सीता के सुंदर चरणों की वंदना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आए।

कहहिं परसपर पुर नर नारी। भलि बनाइ बिधि बात बिगारी॥

तन कृस मन दुखु बदन मलीने। बिकल मनहुँ माखी मधु छीने॥

नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी! उनके शरीर दुबले, मन दुःखी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों।

कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं॥

भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा॥

सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर (पीटकर) पछता रहे हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों। राजद्वार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता।

 

सचिवँ उठाइ राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे॥

सिय समेत दोउ तनय निहारी। ब्याकुल भयउ भूमिपति भारी॥

‘राम पधारे हैं’, ये प्रिय वचन कहकर मंत्री ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सहित दोनों पुत्रों को (वन के लिए तैयार) देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए।

दो० – सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ।

बारहिं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥ 76॥

सीता सहित दोनों सुंदर पुत्रों को देख-देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेह वश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं॥ 76॥

सकइ न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू॥

नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा॥

राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक संताप है। तब रघुकुल के वीर राम ने अत्यंत प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा माँगी –

पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमउ कत कीजै॥

तात किएँ प्रिय प्रेम प्रमादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥

हे पिता! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिए। हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं? हे तात! प्रिय के प्रेमवश प्रमाद (कर्तव्यकर्म में त्रुटि) करने से जगत में यश जाता रहेगा और निंदा होगी।

सुनि सनेह बस उठि नरनाहाँ। बैठारे रघुपति गहि बाहाँ॥

सुनहु तात तुम्ह कहुँ मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं॥

यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर रघुनाथ की बाँह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा – हे तात! सुनो, तुम्हारे लिए मुनि लोग कहते हैं कि राम चराचर के स्वामी हैं।

सुभ अरु असुभ करम अनुहारी। ईसु देइ फलु हृदयँ बिचारी॥

करइ जो करम पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई॥

शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचारकर फल देता है। जो कर्म करता है वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते हैं।

दो० – औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु।

अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु॥ 77॥

(किंतु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग कोई और ही पावे। भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत में कौन है?॥ 77॥

रायँ राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी॥

लखी राम रुख रहत न जाने। धरम धुरंधर धीर सयाने॥

राजा ने इस प्रकार राम को रखने के लिए छल छोड़कर बहुत-से उपाय किए, पर जब उन्होंने धर्मधुरंधर, धीर और बुद्धिमान राम का रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पड़े,

तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भाँति सिख दीन्ही॥

कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए॥

तब राजा ने सीता को हृदय से लगा लिया और बड़े प्रेम से बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दुःसह दुःख कहकर सुनाए। फिर सास, ससुर तथा पिता के (पास रहने के) सुखों को समझाया।

सिय मनु राम चरन अनुरागा। घरु न सुगमु बनु बिषमु न लागा॥

औरउ सबहिं सीय समुझाई। कहि कहि बिपिन बिपति अधिकाई॥

परंतु सीता का मन राम के चरणों में अनुरक्त था। इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा। फिर और सब लोगों ने भी वन में विपत्तियों की अधिकता बता-बताकर सीता को समझाया।

सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी॥

तुम्ह कहुँ तौ न दीन्ह बनबासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू॥

मंत्री सुमंत्र की पत्नी और गुरु वशिष्ठ की स्त्री अरुंधती तथा और भी चतुर स्त्रियाँ स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो (राजा ने) वनवास दिया नहीं है। इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें, तुम तो वही करो।

दो० – सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि।

सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकई अकुलानि॥ 78॥

यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीता को अच्छी नहीं लगी। (वे इस प्रकार व्याकुल हो गईं) मानो शरद ऋतु के चंद्रमा की चाँदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो॥ 78॥

सीय सकुच बस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई॥

मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगें धरि बोली मृदु बानी॥

सीता संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि) और बर्तन (कमंडलु आदि) लाकर राम के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा –

नृपहि प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा॥

सुकृतु सुजसु परलोकु नसाऊ। तुम्हहि जान बन कहिहि न काऊ॥

हे रघुवीर! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। भीरु (प्रेमवश दुर्बल हृदय के) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे! पुण्य, सुंदर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाए, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे।

अस बिचारि सोइ करहु जो भावा। राम जननि सिख सुनि सुखु पावा॥

भूपहि बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे॥

ऐसा विचारकर जो तुम्हें अच्छा लगे वही करो। माता की सीख सुनकर राम ने (बड़ा) सुख पाया। परंतु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। (वे सोचने लगे) अब भी अभागे प्राण (क्यों) नहीं निकलते!

लोग बिकल मुरुछित नरनाहू। काह करिअ कछु सूझ न काहू॥

रामु तुरत मुनि बेषु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई॥

राजा मूर्छित हो गए, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। राम तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए।

दो० – सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत।

बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत॥ 79॥

वन का सब साज-सामान सजकर (वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर) राम स्त्री (सीता) और भाई (लक्ष्मण) सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वंदना करके सबको अचेत करके चले॥ 79॥

निकसि बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े॥

कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए॥

राजमहल से निकलकर राम वशिष्ठ के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग विरह की अग्नि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया, फिर राम ने ब्राह्मणों की मंडली को बुलाया।

गुर सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनय बस कीन्हे॥

जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे॥

गुरु से कहकर उन सबको वर्षाशन (वर्षभर का भोजन) दिए और आदर, दान तथा विनय से उन्हें वश में कर लिया। फिर याचकों को दान और मान देकर संतुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया।

दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहि सौंपि बोले कर जोरी॥

सब कै सार सँभार गोसाईं। करबि जनक जननी की नाईं॥

फिर दास-दासियों को बुलाकर उन्हें गुरु को सौंपकर, हाथ जोड़कर बोले – हे गुसाईं! इन सबकी माता-पिता के समान सार-सँभार (देख-रेख) करते रहिएगा।

बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी॥

सोइ सब भाँति मोर हितकारी। जेहि तें रहै भुआल सुखारी॥

राम बार-बार दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार से हितकारी मित्र वही होगा जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।

दो० – मातु सकल मोरे बिरहँ जेहिं न होहिं दुख दीन।

सोइ उपाउ तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन॥ 80॥

हे परम चतुर पुरवासी सज्जनो! आप लोग सब वही उपाय करिएगा, जिससे मेरी सब माताएँ मेरे विरह के दुःख से दुःखी न हों॥ 80॥

एहि बिधि राम सबहि समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिरु नावा॥

गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघुराई॥

इस प्रकार राम ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरु के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेश, पार्वती और कैलासपति महादेव को मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर रघुनाथ चले॥

राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू॥

कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू॥

राम के चलते ही बड़ा भारी विषाद हो गया। नगर का आर्तनाद (हाहाकर) सुना नहीं जाता। लंका में बुरे शकुन होने लगे, अयोध्या में अत्यंत शोक छा गया और देवलोक में सब हर्ष और विषाद दोनों के वश में हो गए। (हर्ष इस बात का था कि अब राक्षसों का नाश होगा और विषाद अयोध्यावासियों के शोक के कारण था।)

गइ मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्रु कहन अस लागे॥

रामु चले बन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं॥

मूर्छा दूर हुई, तब राजा जागे और सुमंत्र को बुलाकर ऐसा कहने लगे – राम वन को चले गए, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने ये किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे हैं।

एहि तें कवन ब्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना॥

पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू॥

इससे अधिक बलवती और कौन-सी व्यथा होगी जिस दुःख को पाकर प्राण शरीर को छोड़ेंगे। फिर धीरज धरकर राजा ने कहा – हे सखा! तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ।

दो० – सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि।

रथ चढ़ाइ देखराइ बनु फिरेहु गएँ दिन चारि॥ 81॥

अत्यंत सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी को रथ में चढ़ाकर, वन दिखलाकर चार दिन के बाद लौट आना॥ 81॥

जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई॥

तौ तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी॥

यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें – क्योंकि रघुनाथ प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करनेवाले हैं – तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो! जनककुमारी सीता को तो लौटा दीजिए।

जब सिय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई॥

सासु ससुर अस कहेउ सँदेसू। पुत्रि फिरिअ बन बहुत कलेसू॥

जब सीता वन को देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने ऐसा संदेश कहा है कि हे पुत्री! तुम लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं।

पितुगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहु जहाँ रुचि होइ तुम्हारी॥

एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा॥

कभी पिता के घर, कभी ससुराल, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत-से उपाय करना। यदि सीता लौट आईं तो मेरे प्राणों को सहारा हो जाएगा।

नाहिं त मोर मरनु परिनामा। कछु न बसाइ भएँ बिधि बामा॥

अस कहि मुरुछि परा महि राऊ। रामु लखनु सिय आनि देखाऊ॥

नहीं तो अंत में मेरा मरण ही होगा। विधाता के विपरीत होने पर कुछ वश नहीं चलता। हा! राम, लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

दो० – पाइ रजायसु नाइ सिरु रथु अति बेग बनाइ।

गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ॥ 82॥

सुमंत्र राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर और बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर वहाँ गए, जहाँ नगर के बाहर सीता सहित दोनों भाई थे॥ 82॥

तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए॥

चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयँ अवधहि सिरु नाई॥

तब (वहाँ पहुँचकर) सुमंत्र ने राजा के वचन राम को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया। सीता सहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले।

चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा॥

कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं॥

राम को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ (होते हुए) देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिए। कृपा के समुद्र राम उन्हें बहुत तरह से समझाते हैं, तो वे (अयोध्या की ओर) लौट जाते हैं; परंतु प्रेमवश फिर लौट आते हैं।

लागति अवध भयावनि भारी। मानहुँ कालराति अँधिआरी॥

घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी॥

अयोध्यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अंधकारमयी कालरात्रि ही हो। नगर के नर-नारी भयानक जंतुओं के समान एक-दूसरे को देखकर डर रहे हैं।

घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुँ जमदूता॥

बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। सरित सरोवर देखि न जाहीं॥

घर श्मशान, कुटुंबी भूत-प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं। बगीचों में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता।

दो० – हय गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर।

पिक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर॥ 83॥

करोड़ों घोड़े, हाथी, खेलने के लिए पाले हुए हिरन, नगर के (गाय, बैल, बकरी आदि) पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर – ॥ 83॥

राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहुँ चित्र लिखि काढ़े॥

नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी॥

राम के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप स्थिर होकर) खड़े हैं, मानो तसवीरों में लिखकर बनाए हुए हैं। नगर मानो फलों से परिपूर्ण बड़ा भारी सघन वन था। नगर निवासी सब स्त्री-पुरुष बहुत-से पशु-पक्षी थे। (अर्थात अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों को देनेवाली नगरी थी और सब स्त्री-पुरुष सुख से उन फलों को प्राप्त करते थे।)

बिधि कैकई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुँ दिसि दीन्ही॥

सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब ब्याकुल भागी॥

विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दुःसह दावाग्नि (भयानक आग) लगा दी। राम के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल होकर भाग चले।

सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुखु नाहीं॥

जहाँ रामु तहँ सबुइ समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहिं काजू॥

सबने मन में विचार कर लिया कि राम, लक्ष्मण और सीता के बिना सुख नहीं है। जहाँ राम रहेंगे, वहीं सारा समाज रहेगा। राम के बिना अयोध्या में हम लोगों का कुछ काम नहीं है।

चले साथ अस मंत्रु दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई॥

राम चरन पंकज प्रिय जिन्हही। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हही॥

ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से पूर्ण घरों को छोड़कर सब राम के साथ चल पड़े। जिनको राम के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या कभी विषय भोग वश में कर सकते हैं।

दो० – बालक बृद्ध बिहाइ गृहँ लगे लोग सब साथ।

तमसा तीर निवासु किय प्रथम दिवस रघुनाथ॥ 84॥

बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब लोग साथ हो लिए। पहले दिन रघुनाथ ने तमसा नदी के तीर पर निवास किया॥ 84॥

रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयँ दुखु भयउ बिसेषी॥

करुनामय रघुनाथ गोसाँई। बेगि पाइअहिं पीर पराई॥

प्रजा को प्रेमवश देखकर रघुनाथ के दयालु हृदय में बड़ा दुःख हुआ। प्रभु रघुनाथ करुणामय हैं। पराई पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं (अर्थात दूसरे का दुःख देखकर वे तुरंत स्वयं दुःखित हो जाते हैं)।

कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए॥

किए धरम उपदेस घनेरे। लोग प्रेम बस फिरहिं न फेरे॥

प्रेमयुक्त कोमल और सुंदर वचन कहकर राम ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्म संबंधी उपदेश दिए; परंतु प्रेमवश लोग लौटाए लौटते नहीं।

सीलु सनेहु छाड़ि नहिं जाई। असमंजस बस भे रघुराई॥

लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मति मोई॥

शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। रघुनाथ असमंजस के अधीन हो गए (दुविधा में पड़ गए)। शोक और परिश्रम (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गई।

जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेउ सप्रीती॥

खोज मारि रथु हाँकहु ताता। आन उपायँ बनिहि नहिं बाता॥

जब दो पहर बीत गई, तब राम ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा – हे तात! रथ के खोज मारकर (अर्थात पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार) रथ को हाँकिए। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी।

दो० – राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ।

सचिवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दुराइ॥ 85॥

शंकर के चरणों में सिर नवाकर राम, लक्ष्मण और सीता रथ पर सवार हुए। मंत्री ने तुरंत ही रथ को इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया॥ 85॥

जागे सकल लोग भएँ भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू॥

रथ कर खोज कतहुँ नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुँ दिसि धावहिं॥

सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि रघुनाथ चले गए। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं।

मनहुँ बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू॥

एकहि एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू॥

मानो समुद्र में जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो। वे एक-दूसरे को उपदेश देते हैं कि राम ने, हम लोगों को क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है।

निंदहिं आपु सराहहिं मीना। धिग जीवनु रघुबीर बिहीना॥

जौं पै प्रिय बियोगु बिधि कीन्हा। तौ कस मरनु न मागें दीन्हा॥

वे लोग अपनी निंदा करते हैं और मछलियों की सराहना करते हैं। (कहते हैं -) राम के बिना हमारे जीने को धिक्कार है। विधाता ने यदि प्यारे का वियोग ही रचा, तो फिर उसने माँगने पर मृत्यु क्यों नहीं दी!

एहि बिधि करत प्रलाप कलापा। आए अवध भरे परितापा॥

बिषम बियोगु न जाइ बखाना। अवधि आस सब राखहिं प्राना॥

इस प्रकार बहुत-से प्रलाप करते हुए वे संताप से भरे हुए अयोध्या में आए। उन लोगों के विषम वियोग की दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता। (चौदह साल की) अवधि की आशा से ही वे प्राणों को रख रहे हैं।

दो० – राम दरस हित नेम ब्रत लगे करन नर नारि।

मनहुँ कोक कोकी कमल दीन बिहीन तमारि॥ 86॥

(सब) स्त्री-पुरुष राम के दर्शन के लिए नियम और व्रत करने लगे और ऐसे दुःखी हो गए जैसे चकवा, चकवी और कमल सूर्य के बिना दीन हो जाते हैं॥ 86॥

सीता सचिव सहित दोउ भाई। सृंगबेरपुर पहुँचे जाई॥

उतरे राम देवसरि देखी। कीन्ह दंडवत हरषु बिसेषी॥

सीता और मंत्री सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर जा पहुँचे। वहाँ गंगा को देखकर राम रथ से उतर पड़े और बड़े हर्ष के साथ उन्होंने दंडवत की।

लखन सचिवँ सियँ किए प्रनामा। सबहि सहित सुखु पायउ रामा॥

गंग सकल मुद मंगल मूला। सब सुख करनि हरनि सब सूला॥

लक्ष्मण, सुमंत्र और सीता ने भी प्रणाम किया। सबके साथ राम ने सुख पाया। गंगा समस्त आनंद-मंगलों की मूल हैं। वे सब सुखों को करनेवाली और सब पीड़ाओं को हरनेवाली हैं।

कहि कहि कोटिक कथा प्रसंगा। रामु बिलोकहिं गंग तरंगा॥

सचिवहि अनुजहि प्रियहि सुनाई। बिबुध नदी महिमा अधिकाई॥

अनेक कथा प्रसंग कहते हुए राम गंगा की तरंगों को देख रहे हैं। उन्होंने मंत्री को, छोटे भाई लक्ष्मण को और प्रिया सीता को देवनदी गंगा की बड़ी महिमा सुनाई।

मज्जनु कीन्ह पंथ श्रम गयऊ। सुचि जलु पिअत मुदित मन भयऊ॥

सुमिरत जाहि मिटइ श्रम भारू। तेहि श्रम यह लौकिक ब्यवहारू॥

इसके बाद सबने स्नान किया, जिससे मार्ग का सारा श्रम (थकावट) दूर हो गया और पवित्र जल पीते ही मन प्रसन्न हो गया। जिनके स्मरण मात्र से (बार-बार जन्मने और मरने का) महान श्रम मिट जाता है, उनको ‘श्रम’ होना – यह केवल लौकिक व्यवहार (नरलीला) है।

दो० – सुद्ध सच्चिदानंदमय कंद भानुकुल केतु।

चरित करत नर अनुहरत संसृति सागर सेतु॥ 87॥

शुद्ध (प्रकृतिजन्य त्रिगुणों से रहित, मायातीत दिव्य मंगलविग्रह) सच्चिदानंद-कंद स्वरूप सूर्य कुल के ध्वजा रूप भगवान राम मनुष्यों के सदृश ऐसे चरित्र करते हैं, जो संसाररूपी समुद्र के पार उतरने के लिए पुल के समान हैं॥ 87॥

यह सुधि गुहँ निषाद जब पाई। मुदित लिए प्रिय बंधु बोलाई॥

लिए फल मूल भेंट भरि भारा। मिलन चलेउ हियँ हरषु अपारा॥

जब निषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंदित होकर उसने अपने प्रियजनों और भाई-बंधुओं को बुला लिया और भेंट देने के लिए फल, मूल (कंद) लेकर और उन्हें भारों (बहँगियों) में भरकर मिलने के लिए चला। उसके हृदय में हर्ष का पार नहीं था।

करि दंडवत भेंट धरि आगें। प्रभुहि बिलोकत अति अनुरागें॥

सहज सनेह बिबस रघुराई। पूँछी कुसल निकट बैठाई॥

दंडवत करके भेंट सामने रखकर वह अत्यंत प्रेम से प्रभु को देखने लगा। रघुनाथ ने स्वाभाविक स्नेह के वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पूछी।

नाथ कुसल पद पंकज देखें। भयउँ भागभाजन जन लेखें॥

देव धरनि धनु धामु तुम्हारा। मैं जनु नीचु सहित परिवारा॥

निषादराज ने उत्तर दिया – हे नाथ! आपके चरणकमल के दर्शन से ही कुशल है (आपके चरणारविंदों के दर्शन कर) आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया। हे देव! यह पृथ्वी, धन और घर सब आपका है। मैं तो परिवार सहित आपका नीच सेवक हूँ।

कृपा करिअ पुर धारिअ पाऊ। थापिय जनु सबु लोगु सिहाऊ॥

कहेहु सत्य सबु सखा सुजाना। मोहि दीन्ह पितु आयसु आना॥

अब कृपा करके पुर (श्रृंगवेरपुर) में पधारिए और इस दास की प्रतिष्ठा बढ़ाइए, जिससे सब लोग मेरे भाग्य की बड़ाई करें। राम ने कहा – हे सुजान सखा! तुमने जो कुछ कहा सब सत्य है। परंतु पिता ने मुझको और ही आज्ञा दी है।

दो० – बरष चारिदस बासु बन मुनि ब्रत बेषु अहारु।

ग्राम बासु नहिं उचित सुनि गुहहि भयउ दुखु भारु॥ 88॥

(उनकी आज्ञानुसार) मुझे चौदह वर्ष तक मुनियों का व्रत और वेष धारण कर और मुनियों के योग्य आहार करते हुए वन में ही बसना है, गाँव के भीतर निवास करना उचित नहीं है। यह सुनकर गुह को बड़ा दुःख हुआ॥ 88॥

राम लखन सिय रूप निहारी। कहहिं सप्रेम ग्राम नर नारी॥

ते पितु मातु कहहु सखि कैसे। जिन्ह पठए बन बालक ऐसे॥

राम, लक्ष्मण और सीता के रूप को देखकर गाँव के स्त्री-पुरुष प्रेम के साथ चर्चा करते हैं। (कोई कहती है -) हे सखी! कहो तो, वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है।

एक कहहिं भल भूपति कीन्हा। लोयन लाहु हमहि बिधि दीन्हा॥

तब निषादपति उर अनुमाना। तरु सिंसुपा मनोहर जाना॥

कोई एक कहते हैं – राजा ने अच्छा ही किया, इसी बहाने हमें भी ब्रह्मा ने नेत्रों का लाभ दिया। तब निषादराज ने हृदय में अनुमान किया, तो अशोक के पेड़ को (उनके ठहरने के लिए) मनोहर समझा।

लै रघुनाथहिं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँति सुहावा॥

पुरजन करि जोहारु घर आए। रघुबर संध्या करन सिधाए॥

उसने रघुनाथ को ले जाकर वह स्थान दिखाया। राम ने (देखकर) कहा कि यह सब प्रकार से सुंदर है। पुरवासी लोग जोहार (वंदना) करके अपने-अपने घर लौटे और राम संध्या करने पधारे।

गुहँ सँवारि साँथरी डसाई। कुस किसलयमय मृदुल सुहाई॥

सुचि फल मूल मधुर मृदु जानी। दोना भरि भरि राखेसि पानी॥

गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल पत्तों की कोमल और सुंदर साथरी सजाकर बिछा दी और पवित्र, मीठे और कोमल देख-देखकर दोनों में भर-भरकर फल-मूल और पानी रख दिया (अथवा अपने हाथ से फल-मूल दोनों में भर-भरकर रख दिए)।

दो० – सिय सुमंत्र भ्राता सहित कंद मूल फल खाइ।

सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय पलोटत भाइ॥ 89॥

सीता, सुमंत्र और भाई लक्ष्मण सहित कंद-मूल-फल खाकर रघुकुल मणि राम लेट गए। भाई लक्ष्मण उनके पैर दबाने लगे॥ 89॥

उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी॥

कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन लगे बैठि बीरासन॥

फिर प्रभु राम को सोते जानकर लक्ष्मण उठे और कोमल वाणी से मंत्री सुमंत्र को सोने के लिए कहकर वहाँ से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे।

गुहँ बोलाइ पाहरू प्रतीती। ठावँ ठावँ राखे अति प्रीती॥

आपु लखन पहिं बैठेउ जाई। कटि भाथी सर चाप चढ़ाई॥

गुह ने विश्वासपात्र पहरेदारों को बुलाकर अत्यंत प्रेम से जगह-जगह नियुक्त कर दिया। और आप कमर में तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर लक्ष्मण के पास जा बैठा।

सोवत प्रभुहि निहारि निषादू। भयउ प्रेम बस हृदयँ बिषादू॥

तनु पुलकित जलु लोचन बहई। बचन सप्रेम लखन सन कहई॥

प्रभु को जमीन पर सोते देखकर प्रेमवश निषादराज के हृदय में विषाद हो आया। उसका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगा। वह प्रेम सहित लक्ष्मण से वचन कहने लगा –

भूपति भवन सुभायँ सुहावा। सुरपति सदनु न पटतर पावा॥

मनिमय रचित चारु चौबारे। जनु रतिपति निज हाथ सँवारे॥

महाराज दशरथ का महल तो स्वभाव से ही सुंदर है, इंद्रभवन भी जिसकी समानता नहीं पा सकता। उसमें सुंदर मणियों के रचे चौबारे (छत के ऊपर बँगले) हैं, जिन्हें मानो रति के पति कामदेव ने अपने ही हाथों सजाकर बनाया है।

दो० – सुचि सुबिचित्र सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास।

पलँग मंजु मनि दीप जहँ सब बिधि सकल सुपास॥ 90॥

जो पवित्र, बड़े ही विलक्षण, सुंदर भोग पदार्थों से पूर्ण और फूलों की सुगंध से सुवासित हैं; जहाँ सुंदर पलँग और मणियों के दीपक हैं तथा सब प्रकार का पूरा आराम है;॥ 90॥

बिबिध बसन उपधान तुराईं। छीर फेन मृदु बिसद सुहाईं॥

तहँ सिय रामु सयन निसि करहीं। निज छबि रति मनोज मदु हरहीं॥

जहाँ (ओढ़ने-बिछाने के) अनेकों वस्त्र, तकिए और गद्दे हैं, जो दूध के फेन के समान कोमल, निर्मल (उज्ज्वल) और सुंदर हैं; वहाँ (उन चौबारों में) सीता और राम रात को सोया करते थे और अपनी शोभा से रति और कामदेव के गर्व को हरण करते थे।

ते सिय रामु साथरीं सोए। श्रमित बसन बिनु जाहिं न जोए॥

मातु पिता परिजन पुरबासी। सखा सुसील दास अरु दासी॥

वही सीता और राम आज घास-फूस की साथरी पर थके हुए बिना वस्त्र के ही सोए हैं। ऐसी दशा में वे देखे नहीं जाते। माता, पिता, कुटुंबी, पुरवासी (प्रजा), मित्र, अच्छे शील-स्वभाव के दास और दासियाँ –

जोगवहिं जिन्हहि प्रान की नाईं। महि सोवत तेइ राम गोसाईं॥

पिता जनक जग बिदित प्रभाऊ। ससुर सुरेस सखा रघुराऊ॥

सब जिनकी अपने प्राणों की तरह सार-सँभार करते थे, वही प्रभु राम आज पृथ्वी पर सो रहे हैं। जिनके पिता जनक हैं, जिनका प्रभाव जगत में प्रसिद्ध है, जिनके ससुर इंद्र के मित्र रघुराज दशरथ हैं,

रामचंदु पति सो बैदेही। सोवत महि बिधि बाम न केही॥

सिय रघुबीर कि कानन जोगू। करम प्रधान सत्य कह लोगू॥

और पति राम हैं, वही जानकी आज जमीन पर सो रही हैं। विधाता किसको प्रतिकूल नहीं होता! सीता और राम क्या वन के योग्य हैं? लोग सच कहते हैं कि कर्म (भाग्य) ही प्रधान है।

दो० – कैकयनंदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह।

जेहिं रघुनंदन जानकिहि सुख अवसर दुखु दीन्ह॥ 91॥

कैकयराज की लड़की नीच बुद्धि कैकेयी ने बड़ी ही कुटिलता की, जिसने रघुनंदन राम और जानकी को सुख के समय दुःख दिया॥ 91॥

भइ दिनकर कुल बिटप कुठारी। कुमति कीन्ह सब बिस्व दुखारी॥

भयउ बिषादु निषादहि भारी। राम सीय महि सयन निहारी॥

वह सूर्यकुलरूपी वृक्ष के लिए कुल्हाड़ी हो गई। उस कुबुद्धि ने संपूर्ण विश्व को दुःखी कर दिया। राम-सीता को जमीन पर सोते हुए देखकर निषाद को बड़ा दुःख हुआ।

बोले लखन मधुर मृदु बानी। ग्यान बिराग भगति रस सानी॥

काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता॥

तब लक्ष्मण ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के रस से सनी हुई मीठी और कोमल वाणी बोले – हे भाई! कोई किसी को सुख-दुःख का देनेवाला नहीं है। सब अपने ही किए हुए कर्मों का फल भोगते हैं।

जोग बियोग भोग भल मंदा। हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा॥

जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू। संपति बिपति करमु अरु कालू॥

संयोग (मिलना), वियोग (बिछुड़ना), भले-बुरे भोग, शत्रु, मित्र और उदासीन – ये सभी भ्रम के फंदे हैं। जन्म-मृत्यु, संपत्ति-विपत्ति, कर्म और काल – जहाँ तक जगत के जंजाल हैं,

दरनि धामु धनु पुर परिवारू। सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू॥

देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं। मोह मूल परमारथु नाहीं॥

धरती, घर, धन, नगर, परिवार, स्वर्ग और नरक आदि जहाँ तक व्यवहार हैं, जो देखने, सुनने और मन के अंदर विचारने में आते हैं, इन सबका मूल मोह (अज्ञान) ही है। परमार्थतः ये नहीं हैं।

दो० – सपनें होइ भिखारि नृपु रंकु नाकपति होइ।

जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ॥ 92॥

जैसे स्वप्न में राजा भिखारी हो जाए या कंगाल स्वर्ग का स्वामी इंद्र हो जाए, तो जागने पर लाभ या हानि कुछ भी नहीं है; वैसे ही इस दृश्य-प्रपंच को हृदय से देखना चाहिए॥ 92॥

अस बिचारि नहिं कीजिअ रोसू। काहुहि बादि न देइअ दोसू॥

मोह निसाँ सबु सोवनिहारा। देखिअ सपन अनेक प्रकारा॥

ऐसा विचारकर क्रोध नहीं करना चाहिए और न किसी को व्यर्थ दोष ही देना चाहिए। सब लोग मोहरूपी रात्रि में सोनेवाले हैं और सोते हुए उन्हें अनेकों प्रकार के स्वप्न दिखाई देते हैं।

एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥

जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥

इस जगतरूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब संपूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए।

होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥

सखा परम परमारथु एहू। मन क्रम बचन राम पद नेहू॥

विवेक होने पर मोहरूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) रघुनाथ के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से राम के चरणों में प्रेम होना, यही सर्वश्रेष्ठ परमार्थ (पुरुषार्थ) है।

राम ब्रह्म परमारथ रूपा। अबिगत अलख अनादि अनूपा॥

सकल बिकार रहित गतभेदा। कहि नित नेति निरूपहिं बेदा॥

राम परमार्थस्वरूप (परमवस्तु) परब्रह्म हैं। वे अविगत (जानने में न आनेवाले), अलख (स्थूल दृष्टि से देखने में न आनेवाले), अनादि (आदिरहित), अनुपम (उपमारहित) सब विकारों से रहति और भेद शून्य हैं, वेद जिनका नित्य ‘नेति-नेति’ कहकर निरूपण करते हैं।

दो० – भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल।

करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहिं जग जाल॥ 93॥

वही कृपालु राम भक्त, भूमि, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके लीलाएँ करते हैं, जिनके सुनने से जगत के जंजाल मिट जाते हैं॥ 93॥

श्री राम चरित मानस- अयोध्याकांड, मासपारायण, पन्द्रहवाँ विश्राम समाप्त॥

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