श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, छठा विश्राम || Shri Ram Charit Manas Chhatha Vishram

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श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, छठा विश्राम

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, छठा विश्राम

श्री रामचरित मानस

प्रथम सोपान (बालकाण्ड)

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति संभु बखानी॥

बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥

हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिव ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता (राज्य करता) था।

धरम धुरंधर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥

तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥

वह धर्म की धुरी को धारण करनेवाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के भंडार और बड़े ही रणधीर थे।

राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥

अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल संग्रामा॥

राज्य का उत्तराधिकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में (पर्वत के समान) अटल रहता था।

भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥

जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥

भाई-भाई में बड़ा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठ पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान (के भजन) के लिए वन को चल दिया।

दो० – जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।

प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥ 153॥

जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया॥ 153॥

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥

सचिव सयान बंधु बलबीरा। आपु प्रतापपुंज रनधीरा॥

राजा का हित करनेवाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मंत्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मंत्री और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बड़ा प्रतापी और रणधीर था।

सेन संग चतुरंग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥

सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥

साथ में अपार चतुरंगिणी सेना थी, जिसमें असंख्य योद्धा थे, जो सब के सब रण में जूझ मरनेवाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे।

बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥

जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥

दिग्विजय के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डंका बजाकर चला। जहाँ-तहाँ बहुत-सी लड़ाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया।

सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दंड छाड़ि नृप दीन्हे॥

सकल अवनि मंडल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥

अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों (भूमिखंडों) को वश में कर लिया और राजाओं से दंड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड़ दिया। संपूर्ण पृथ्वी मंडल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था।

दो० – स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।

अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥ 154॥

संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था॥ 154॥

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥

सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुंदर नर नारी॥

राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुंदर कामधेनु (मनचाही वस्तु देनेवाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुंदर और धर्मात्मा थे।

सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥

गुर सुर संत पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥

धर्मरुचि मंत्री का हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, संत, पितर और ब्राह्मण – इन सबकी सदा सेवा करता रहता था।

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥

दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥

वेदों में राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था।

नाना बापीं कूप तड़ागा। सुमन बाटिका सुंदर बागा॥

बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह बिचित्र बनाए॥

उसने बहुत-सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाड़ियाँ सुंदर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और देवताओं के सुंदर विचित्र मंदिर सब तीर्थों में बनवाए।

दो० – जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।

बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥ 155॥

वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥ 155॥

हृदयँ न कछु फल अनुसंधाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥

करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥

(राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था।

चढ़ि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥

बिंध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥

एक बार वह राजा एक अच्छे घोड़े पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विंध्याचल के घने जंगल में गया और वहाँ उसने बहुत-से उत्तम-उत्तम हिरन मारे।

फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥

बड़ बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥

राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पड़ता था) मानो चंद्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकड़कर) राहु वन में आ छिपा हो। चंद्रमा बड़ा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है।

कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥

घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥

यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोड़े की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था।

दो० – नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।

चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥ 156॥

नील पर्वत के शिखर के समान विशाल (शरीरवाले) उस सूअर को देखकर राजा घोड़े को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता॥ 156॥

आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥

तुरत कीन्ह नृप सर संधाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥

अधिक शब्द करते हुए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया।

तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥

प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥

राजा तक-तककर तीर चलाता है, परंतु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ (पीछे) लगा चला जाता था।

गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥

अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥

सूअर बहुत दूर ऐसे घने जंगल में चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोड़ा।

कोल बिलोकि भूप बड़ धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥

अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥

राजा को बड़ा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड़ की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया।

दो० – खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।

खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥ 157॥

बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोड़े समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥ 157॥

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥

जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥

वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोड़कर युद्ध से भाग गया था।

समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥

गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥

प्रतापभानु का समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमान कर उसके मन में बड़ी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मिला (मेल किया)।

रिस उर मारि रंक जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥

तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥

दरिद्र की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा (प्रतापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है।

राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥

उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥

राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोड़े से उतरकर उसे प्रणाम किया, परंतु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बताया।

दो० – भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।

मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥ 158॥

राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोड़े सहित उसमें स्नान और जलपान किया॥ 158॥

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥

आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥

सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला –

को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुंदर जुबा जीव परहेलें॥

चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥

तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।

नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥

फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बड़ें भाग देखेउँ पद आई॥

(राजा ने कहा -) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मंत्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बड़े भाग्य से यहाँ आकर मैंने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं।

हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥

कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥

हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुनि ने कहा – हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है।

दो० – निसा घोर गंभीर बन पंथ न सुनहु सुजान।

बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥ 15 (क)॥

हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥ 159(क)॥

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।

आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥ 159(ख)॥

तुलसीदास कहते हैं – जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥ 159(ख)॥

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥

नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बंदि निज भाग्य सराही॥

हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढ़ाकर, घोड़े को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वंदना करके अपने भाग्य की सराहना की।

पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥

मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥

फिर सुंदर कोमल वाणी से कहा – हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए।

तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥

बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥

राजा ने उसको नहीं पहचाना था, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध-हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था।

समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥

ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥

वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के) आँवे की आग की तरह (भीतर-ही-भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ।

दो० – कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।

नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥ 160॥

वह कपट में डुबोकर बड़ी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला – अब हमारा नाम भिखारी है, क्योंकि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥ 160॥

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥

सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥

राजा ने कहा – जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योंकि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है (प्रकट संत वेश में मान होने की संभावना है और मान से पतन की)।

तेहि तें कहहिं संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥

तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥

इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिंचन (सर्वथा अहंकार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिव को भी संदेह हो जाता है (कि वे वास्तविक संत हैं या भिखारी)।

जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥

सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥

आप जो हों सो हों (अर्थात जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर –

सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥

सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥

सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला – हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया।

दो० – अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।

लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥ 161(क)॥

अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योंकि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तपरूपी वन को भस्म कर डालती है॥ 161(क)॥

सो० – तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर।

सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥ 161(ख)॥

तुलसीदास कहते हैं – सुंदर वेष देखकर मूढ़ नहीं (मूढ़ तो मूढ़ ही हैं), चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है॥ 161(ख)॥

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥

प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥

(कपट-तपस्वी ने कहा -) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। हरि को छोड़कर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी।

तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥

अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥

तुम पवित्र और सुंदर बुद्धिवाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा।

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥

देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥

ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगानेवाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला –

नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥

कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥

हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा – मुझे अपना अत्यंत (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए।

दो० – आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।

नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥ 162॥

(कपटी मुनि ने कहा -) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैंने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है॥ 162॥

जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥

तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥

हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करनेवाले बने हैं।

तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥

भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥

तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा।

करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥

उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥

कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कहीं।

सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥

कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥

राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा – राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा।

सो० – सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।

मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥ 163॥

हे राजन! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा प्रेम हो गया है॥ 163॥

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥

गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥

तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं।

देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥

उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥

हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बड़ी ममता उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ।

अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥

सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥

अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें संदेह न करना। हे राजन! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकड़कर उसने बहुत प्रकार से विनती की।

कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥

प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥

हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ।

दो० – जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।

एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥ 164॥

मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्प तक एकछत्र अकंटक राज्य हो॥ 164॥

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥

कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥

तपस्वी ने कहा – हे राजन! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड़ काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा।

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥

जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥

तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे।

चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥

बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥

ब्राह्मण कुल से जोर-जबरदस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा।

हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥

तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥

राजा उसके वचन सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा – हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा।

दो० – एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।

मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥ 165॥

‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला – (किंतु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से (कहना नहीं, यदि) कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं॥ 165॥

तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥

छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥

हे राजन! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसंग को कहने से तुम्हारी बड़ी हानि होगी। छठे कान में यह बात पड़ते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना।

यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥

आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥

हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शंकर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी।

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥

राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥

राजा ने मुनि के चरण पकड़कर कहा – हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचानेवाला नहीं है।

जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥

एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥

यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिंता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बड़ा भयानक होता है।

दो० – होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।

तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥ 166॥

वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोड़कर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता॥ 166॥

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥

अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥

(तपस्वी ने कहा -) हे राजन! सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं; पर वे कष्ट-साध्य हैं (बड़ी कठिनता से बनने में आते हैं) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है; परंतु उसमें भी एक कठिनता है।

मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥

आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥

हे राजन! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया।

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥

सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥

परंतु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि –

बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥

जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥

बड़े लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है।

दो० – अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।

मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥ 167॥

ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड़ लिए। (और कहा -) हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप संत हैं। दीनदयालु हैं। (अतः) हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट (अवश्य) सहिए॥ 167॥

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥

सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥

राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला – हे राजन! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है।

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥

जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥

मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योंकि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मंत्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं।

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥

अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥

हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पाए, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा।

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥

जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥

यही नहीं, उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन! जाकर यही उपाय करो और वर्ष भर (भोजन कराने) का संकल्प कर लेना।

दो० – नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।

मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥ 168॥

नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥ 168॥

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥

करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥

हे राजन! इस प्रकार बहुत ही थोड़े परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेंगे, तो उस प्रसंग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे।

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥

तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥

मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा।

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥

मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥

तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा।

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥

मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥

हे राजन! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेंट होगी। तप के बल से मैं घोड़े सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा।

दो० – मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।

जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥ 169॥

मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥ 169॥

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥

श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥

राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नींद आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिंता हो रही थी।

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥

परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥

(उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बड़ा मित्र था और खूब छल-प्रपंच जानता था।

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥

प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥

उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बड़े ही दुष्ट, किसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। ब्राह्मणों, संतों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था।

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥

जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥

उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह की और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका।

दो० – रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।

अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥ 170॥

तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चंद्रमा को दुःख देता है॥ 170॥

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥

मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥

तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनंदित होकर बोला।

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥

परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥

हे राजन! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर लिया, तो अब मैंने शत्रु को काबू में कर ही लिया (समझो)। तुम अब चिंता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया।

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥

तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥

कुल सहित शत्रु को जड़-मूल से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। (इस प्रकार) तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यंत क्रोधी राक्षस चला।

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥

नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥

उसने प्रतापभानु राजा को घोड़े सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोड़े को अच्छी तरह से घुड़साल में बाँध दिया।

दो० – राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।

लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥ 171॥

फिर वह राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड़ की खोह में ला रखा॥ 171॥

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥

जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥

वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुंदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आश्चर्य माना।

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥

कानन गयउ बाजि चढ़ि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥

मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी न जान पाए। फिर उसी घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष को पता नहीं चला।

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥

उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥

दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह (अपने) उसी कार्य का स्मरण कर उसे आश्चर्य से देखने लगा।

जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥

समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥

राजा को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही। निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह के अनुसार (उसने अपने) सब विचार उसे समझाकर कह दिए।

दो० – नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।

बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुंब समेत॥ 172॥

(संकेत के अनुसार) गुरु को (उस रूप में) पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा (कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस)। उसने तुरंत एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुंब सहित निमंत्रण दे दिया॥ 172॥

उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥

मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई॥

पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यंजन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता।

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥

भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥

अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया।

परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥

बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू। है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू॥

ज्यों ही राजा परोसने लगा, उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई – हे ब्राह्मणो! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस (के खाने) में बड़ी हानि है।

भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥

भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥

रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खड़े हुए। राजा व्याकुल हो गया (परंतु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात (भी) न निकली।

दो० – बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।

जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार॥ 173॥

तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे – उन्होंने कुछ भी विचार नहीं किया – अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो॥ 173॥

छत्रबंधु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥

ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥

रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा।

संबत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥

नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥

एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देनेवाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यंत व्याकुल हो गया। फिर सुंदर आकाशवाणी हुई –

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥

चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥

हे ब्राह्मणो! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।

तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥

सब प्रसंग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥

(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिंता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तांत सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा।

दो० – भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।

किएँ अन्यथा होइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥ 174॥

हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता॥ 174॥

अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥

सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किय जेहीं॥

ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिंता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजा को देवता बनाना चाहिए था, पर राक्षस बना दिया)।

उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥

तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥

पुरोहित को उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तपस्वी को खबर दी। उस दुष्ट ने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे, जिससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ़) दौड़े।

घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥

जूझे सकल सुभट करि करनी। बंधु समेत परेउ नृप धरनी॥

और उन्होंने डंका बजाकर नगर को घेर लिया। नित्य प्रति अनेक प्रकार से लड़ाई होने लगी। (प्रतापभानु के) सब योद्धा (शूरवीरों की) करनी करके रण में जूझ मरे। राजा भी भाई सहित खेत रहा।

सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥

रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥

सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रु को जीतकर, नगर को (फिर से) बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए।

 

 

दो० – भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।

धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥ 175॥

(याज्ञवल्क्य कहते हैं -) हे भरद्वाज! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल डालनेवाली), पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के समान (काट खानेवाली) हो जाती है॥ 175॥

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥

दस सिर ताहि बीस भुजदंडा। रावन नाम बीर बरिबंडा॥

हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बड़ा ही प्रचंड शूरवीर था।

भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुंभकरन बलधामा॥

सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बंधु लघु तासू॥

अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुंभकर्ण हुआ। उसका जो मंत्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हुआ।

नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥

रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥

उसका विभीषण नाम था, जिसे सारा जगत जानता है। वह विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान का भंडार था और जो राजा के पुत्र और सेवक थे, वे सभी बड़े भयानक राक्षस हुए।

कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयंकर बिगत बिबेका॥

कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥

वे सब अनेकों जाति के, मनमाना रूप धारण करनेवाले, दुष्ट, कुटिल, भयंकर, विवेकरहित, निर्दयी, हिंसक, पापी और संसार भर को दुःख देनेवाले हुए, उनका वर्णन नहीं हो सकता।

दो० – उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।

तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥ 176॥

यद्यपि वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥ 176॥

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥

गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥

तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बड़ी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्मा उनके पास गए और बोले – हे तात! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो।

करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥

हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥

रावण ने विनय करके और चरण पकड़कर कहा – हे जगदीश्वर! सुनिए, वानर और मनुष्य – इन दो जातियों को छोड़कर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)।

एवमस्तु तुम्ह बड़ तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥

पुनि प्रभु कुंभकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥

(शिव कहते हैं कि -) मैंने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप किया है। फिर ब्रह्मा कुंभकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥

सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥

जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्मा ने सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससे) उसने छह महीने की नींद माँगी।

दो० – गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।

तेहिं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनुरागु॥ 177॥

फिर ब्रह्मा विभीषण के पास गए और बोले – हे पुत्र! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों में निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम माँगा॥ 177॥

तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥

मय तनुजा मंदोदरि नामा। परम सुंदरी नारि ललामा॥

उनको वर देकर ब्रह्मा चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मंदोदरी नाम की कन्या परम सुंदरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी।

सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥

हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बंधु बिआहेसि जाई॥

मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह कर दिया।

गिरि त्रिकूट एक सिंधु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥

सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥

समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बड़ा भारी किला था। (महान मायावी और निपुण कारीगर) मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जड़े हुए सोने के अनगिनत महल थे।

भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥

तिन्ह तें अधिक रम्य अति बंका। जग बिख्यात नाम तेहि लंका॥

जैसी नागकुल के रहने की (पाताल लोक में) भोगावती पुरी है और इंद्र के रहने की (स्वर्गलोक में) अमरावती पुरी है, उनसे भी अधिक सुंदर और बाँका वह दुर्ग था। जगत में उसका नाम लंका प्रसिद्ध हुआ।

दो० – खाईं सिंधु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।

कनक कोट मनि खचित दृढ़ बरनि न जाइ बनाव॥ 178(क)॥

उसे चारों ओर से समुद्र की अत्यंत गहरी खाई घेरे हुए है। उस (दुर्ग) के मणियों से जड़ा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता॥ 178(क)॥

हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।

सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥ 178(ख)॥

भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावण) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है॥ 178(ख)॥

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर संघारे॥

अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥

(पहले) वहाँ बड़े-बड़े योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्ध में मार डाला। अब इंद्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ रक्षक (यक्ष लोग) रहते हैं।

दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ़ घेरेसि जाई॥

देखि बिकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥

रावण को कहीं ऐसी खबर मिली, तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बड़े विकट योद्धा और उसकी बड़ी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गए।

फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥

सुंदर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥

तब रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान संबंधी) चिंता मिट गई और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुंदर और (बाहरवालों के लिए) दुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की।

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥

एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥

योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ़ दौड़ा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया।

दो० – कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।

मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥ 179॥

फिर उसने जाकर (एक बार) खिलवाड़ ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥ 179॥

सुख संपति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई॥

नित नूतन सब बाढ़त जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥

सुख, संपत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बड़ाई – ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।

अतिबल कुंभकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥

करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥

अत्यंत बलवान कुंभकर्ण-सा उसका भाई था, जिसके जोड़ का योद्धा जगत में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था।

जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥

समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥

यदि वह प्रतिदिन भोजन करता, तब तो संपूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट (खाली) हो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (लंका में) उसके ऐसे असंख्य बलवान वीर थे।

बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥

जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥

मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, जिसका जगत के योद्धाओं में पहला नंबर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके भय से) नित्य भगदड़ मची रहती थी।

दो० – कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।

एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥ 180॥

(इनके अतिरिक्त) दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदंत, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥ 180॥

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥

दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥

सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा –

सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥

सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥

पुत्र-पौत्र, कुटुंबी और सेवक ढेर-के-ढेर थे। राक्षसों की (सारी) जातियों को तो गिन ही कौन सकता था! अपनी सेना को देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला –

सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥

ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥

हे समस्त राक्षसों के दलो! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को देखकर भाग जाते हैं।

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥

द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥

उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को बढ़ानेवाले) ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध – इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो।

दो० – छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।

तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ॥ 181॥

भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेंगे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भली-भाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करके) छोड़ दूँगा॥ 181॥

मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढ़ावा॥

जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥

फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा -) हे पुत्र! जो देवता रण में धीर और बलवान हैं और जिन्हें लड़ने का अभिमान है,

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी॥

एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥

उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया।

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥

रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥

रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)।

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥

पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥

दिग्पालों के सारे सुंदर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था।

रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥

रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥

रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौड़ता फिरा, परंतु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चंद्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी,

किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा॥

ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥

किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग – सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड़ गया (किसी को भी उसने शांतिपूर्वक नहीं बैठने दिया)। ब्रह्मा की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गए।

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥

डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे।

दो० – भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।

मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र॥ 182(क)॥

उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया। (इस प्रकार) मंडलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा॥ 182(क)॥

देव जच्छ गंधर्ब नर किंनर नाग कुमारि।

जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि॥ 182(ख)॥

देवता, यक्ष, गंधर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत-सी अन्य सुंदरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया॥ 182 (ख)॥

इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥

प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥

मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो।

देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥

करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥

सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे।

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥

जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥

जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे।

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥

नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥

(उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे।

छं० – जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।

आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥

अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।

तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥

जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।

सो० – बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।

हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥ 183॥

राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना॥ 183॥

श्री राम चरित मानस- बालकाण्ड, मासपारायण, छठा विश्राम समाप्त॥

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