श्रीकृष्णस्तोत्रम् || Sri Krishna Stotram

1

इस श्रीकृष्णस्तोत्रम् माहेश्वरतन्त्र के उत्तरखण्ड में शिव-पार्वती संवाद में वर्णन हुआ है। पार्वती ने जब भगवान शिव से पूछा कि – हे प्रभो ! श्री कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं ? तब शिवजी ने इस श्रीकृष्णस्तोत्रम् को कहा है।

श्रीकृष्णस्तोत्रम्

॥ पार्वत्युवाच ॥

भगवन् श्रोतुमिच्छामि यथा कृष्णः प्रसीदति ।

विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रभो ॥ १ ॥

पार्वती ने कहा – हे भगवन ! हे प्रभो ! मैं यह पूँछना चाहती हूँ कि बिना जप, बिना सेवा तथा बिना पूजा के भी कृष्ण कैसे प्रसन्न होते हैं ? ॥ १ ॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदाधुना ।

अन्यथा देवदेवेश पुरुषार्थो न सिद्ध्यति ॥ २ ॥

जैसे कृष्ण प्रसन्न होंवे- उस उपाय को अब आप कहिए । नहीं तो, हे देवदेवेश ! (मानव का मोक्षरूप) पुरुषार्थ नहीं सिद्ध होता है ॥ २ ॥

॥ शिव उवाच ॥

साधू पार्वति ते प्रश्नः सावधानतया श्रृणु! ।

विना जपं विना सेवां विना पूजामपि प्रिये ॥ ३ ॥

यथा कृष्णः प्रसन्नः स्यात्तमुपायं वदामि ते ।

जपसेवादिकं चापि विना स्तोत्रं न सिद्ध्यति ॥ ४ ॥

शिव ने कहा – हे पार्वति ! तुम्हारा प्रश्न बहुत सुन्दर है । अब इसे सावधान होकर सुनो । बिना जप के, बिना उनकी सेवा के तथा बिना पूजा के भी, हे प्रिये ! जैसे कृष्ण प्रसन्न होवें उस उपाय को मैं अब कहता हूँ । जप और सेवा आदि भी बिना स्तोत्र के सिद्ध नहीं होते हैं ॥ ३-४ ॥

कीर्तिप्रियो हि भगवान्वरात्मा पुरुषोत्तमः ।

जपस्तन्मयतासिद्ध्यै सेवा स्वाचाररूपिणी ॥ ५ ॥

भगवान परमात्मा पुरुषोत्तम कीर्तिप्रिय (गुणसंकीर्तन से प्रसन्न होनेवाले) हैं । जप तो भगवान् में तन्मयता की सिद्धि के लिए होता है और सेवा स्वयं के आचरण के रूपवाली होती है ॥ ५ ॥

स्तुतिः प्रसादनकरी तस्मात्स्तोत्रं वदामि ते ।

सुधाम्भोनिधिमध्यस्थे रत्नद्वीपे मनोहरे ॥ ६ ॥

नवखण्डात्मके तत्र नवरत्नविभूषिते ।

तन्मध्ये चिन्तयेद्रम्यं मणिगृहमनुत्तमम् ॥ ७ ॥

भगवान् की स्तुति उन्हें प्रसन्न करनेवाली होती है । अतः उनके स्तोत्र को मैं तुमसे कहता हूँ । सुधा-समुद्र के मध्य में मनोहर रत्नद्वीप पर नव रत्न से विभूषित नव खण्डात्मक पीठ है । उस पीठ के मध्य में उत्तमोत्तम एवं रम्य ‘मणिगृह’ का चिन्तन करना चाहिए ॥ ६-७ ॥

परितो वनमालाभिः ललिताभिः विराजिते ।

तत्र सञ्चिन्तयेच्चारु कुटिटमं सुमनोहरम् ॥ ८ ॥

चतुःषष्टया मणिस्तम्भैश्वतुदिक्ष विराजितम् ।

तव सिंहासने ध्यायेत्कृष्णं कमललोचनम् ॥ ९ ॥

चारो ओर ललित वनमालाओं से शोभायमान सिंहासन पर आसीन भगवान् कमललोचन कृष्ण का ध्यान करना चाहिए । उस सिंहासन का भी ध्यान करना चाहिए जो सिंहासन सुमनोहर एवं चारू फर्शवाला है और जो चारों ओर दिशाओं में चौसठ मणिनिर्मित स्तम्भों से जगमगा रहा है ॥ ८-९ ॥

अनर्घ्यरत्नजटितमुकुटोज्वलकुण्डलम् ।

सुस्मितं सुमुखाम्भोजं सखीवृन्दनिषेवितम् ॥ १० ॥

स्वामिन्याश्लिष्टबामाङ्गं परमानन्दविग्रहम् ।

एवं ध्यात्वा ततः स्तोत्रं पठेत्सुविजितेन्द्रियः ॥ ११ ॥

भगवान कृष्ण का मुकुट चमचमाता हुआ और कुण्डल अनर्घ्य रत्नों से जटित है । उनका मुखकमल सुन्दर मुस्कान से युक्त तथा सखी वृन्द से सेवित है । उनका परमानन्द विग्रह वाम भाग में स्वामिनी (राधा) से संश्लिष्ट है । उस विग्रह का ध्यान करके जितेन्द्रिय साधक को उनके स्तोत्र का पाठ करना चाहिए ॥ १०-११ ॥
॥ अथ श्रीकृष्णस्तोत्रम् ॥

कृष्णं कमलपत्राक्षं सच्चिदानन्दविग्रहम् ।

सखीयुथान्तरचरं प्रणमामि परात्परम् ॥ १२ ॥

सत्, चित् एवं आनन्दस्वरूप, कमल के पत्र के समान नेत्रोंवाले तथा सखी समूह में विचरण करनेवाले परात्पर कृष्ण को मेरा प्रणाम है ॥ १२ ॥

श्रृङ्गाररसरूपाय परिपूर्णसुखात्मने ।

राजीवारुणनेत्राय कोटिकन्दर्परूपिणे ॥ १३ ॥

श्रृंगाररस रूपवाले, परिपूर्ण सुखवाले, लाल कमल के समान अरुण नेत्रवाले तथा कोटिकामदेव स्वरूप कृष्ण को मेरा नमस्कार है ॥ १३ ॥

वेदाद्यगमरूपाय वेदवेद्यस्वरूपिणे ।

अवाङ्मनसविषयनिजलीलाप्रवर्त्तिने ॥ १४ ॥

वेद आदि आगमरूपवाले, वेद से ही जाने जानेवाले, अन्तर मन के विषय तथा निज लीला का स्वयं प्रवर्तन करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १४ ॥

नमः शुद्धाय पूर्णाय निरस्तगुणवृत्तये ।

अखण्डाय निरंशाय निरावरणरूपिणे ॥ १५ ॥

शुद्ध, पूर्ण, गुणों की वृत्ति से निरस्त, अखण्ड, निरंश तथा आवरण रहितरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १५ ॥

संयोगविप्रलम्भाख्यभेदभावमहाब्धये ।

सदंशविश्वरूपाय चिदंशाक्षररूपिणे ॥ १६ ॥

संयोग एवं विप्रलम्भ नामक श्रृंगाररस के भेदों के भाव के महासमुद्र, सत् अंश से विश्वस्वरूप और चित् अंश से युक्त अक्षररूपवाले (नित्य) कृष्ण को नमस्कार है ॥ १६ ॥

आनन्दांशस्वरूपाय सच्चिदानन्दरूपिणे ।

मर्यादातीतरूपाय निराधाराय साक्षिणे ॥ १७ ॥

आनन्द के अंश के स्वरूपवाले, इस प्रकार सत्, चित् तथा आनन्द स्वरूपवाले, मर्यादा से भी अधिक रूपवाले, निराधार एवं (सर्वकार्य के) साक्षी कृष्ण को नमस्कार है ॥ १७ ॥

मायाप्रपञ्चदूराय नीलाचलविहारिणे ।

माणिक्यपुष्परागाद्रिलीलाखेलप्रवर्त्तिने ॥ १८ ॥

माया प्रपञ्च (की परिधि) से दूर रहनेवाले, नीलाचल (जगन्नाथ पुरी)में विहार करनेवाले तथा माणिक्य एवं पुष्पराग के अद्रि की लीला आदि खेलों को करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ १८ ॥

चिदन्तर्यामिरूपाय ब्रह्मानन्दस्वरूपिणे ।

प्रमाणपथदूराय प्रमाणाग्राह्यरूपिणे ॥ १९ ॥

चित् रूप से अन्तरात्मा में रहनेवाले, ब्रह्मानन्द स्वरूप, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से न जाने जानेवाले, अतः अनुमान आदि प्रमाण पथ से विज्ञेय कृष्ण को नमस्कार है ॥ १९ ॥

मायाकालुष्यहीनाय नमः कृष्णाय शम्भवे ।

क्षरायाक्षररूपाय क्षराक्षरविलक्षणे ॥ २० ॥

माया की कालिमा से विहीन, कल्याण करनेवाले कृष्ण को नमस्कार हैं । क्षर (अनित्य) और अक्षर (नित्य) स्वरूपवाले तथा क्षर एवं अक्षर से भी विलक्षण (गुणातीत एवं अनन्त) स्वरूपवाले कृष्ण को नमस्कार है॥ २०॥

तुरीयातीतरूपाय नमः पुरुषरूपिणे ।

महाकामस्वरूपाय कामतत्त्वार्थवेदिने ॥ २१ ॥

तुरीय से अतीत रूपवाले एवं पुरुष रूपवाले कृष्ण को नमस्कार है । महान काम स्वरूपवाले एवं काम तत्त्व के अर्थ के ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २१ ॥

दशलीलाविहाराय सप्ततीर्थविहारिणे ।

विहाररसपूर्णाय नमस्तुभ्यं कृपानिधे ॥ २२ ॥

दशावताररूप लीला में विहार करनेवाले तथा (मथुरा के जमुना, जन्मभूमि व्रज आदि) सप्ततीर्थों में विचरण करनेवाले, (लीला) विहार के रस से पूर्ण और तुम कृपा के निधान कृष्ण को नमस्कार है ॥ २२ ॥

विरहानलसन्तप्त भक्तचित्तोदयाय च ।

आविष्कृतनिजानन्दविफलीकृतमुक्तये ॥ २३ ॥

(कृष्ण के) विरह की अग्नि से संतप्त तथा भक्त के चित्त में प्राण का संचार करनेवाले और अपने मुक्ति को विफल करने के लिए आनन्द को स्वयं प्रकट करनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २३ ॥

द्वैताद्वैत महामोहतमःपटलपाटिने ।

जगदुत्पत्तिविलय साक्षिणेऽविकृताय च ॥ २४ ॥

(माया एवं ब्रह्मरूप से) द्वैत तथा (ब्रह्मरूप से) अद्वैत रूप से महा मोह के अन्धकार पटल को समाप्त कर देनेवाले, जगत् की उत्पत्ति और उसके विलय के साक्षी एवं अविकृत कृष्ण को नमस्कार है ॥ २४ ॥

ईश्वराय निरीशाय निरस्ताखिलकर्मणे ।

संसारध्वान्तसूर्याय पूतनाप्राणहारिणे ॥ २५ ॥

ईश्वर, ईशविहीन, समस्त कर्म से रहित, संसार के अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्यरूप तथा पूतना के प्राण का हरण कर लेनेवाले कृष्ण को नमस्कार है ॥ २५ ॥

रासलीलाविलासोर्मिपूरिताक्षरचेतसे ।

स्वामिनीनयनाम्भोजभावभेदकवेदिने ॥ २६ ॥

रास लीला के विलासरूप समुद्र की लहर से पूरित होकर भी अक्षर चित्तवाले, स्वामिनी राधा के नयन कमल की भावभङ्गिमा के एक मात्र ज्ञाता कृष्ण को नमस्कार है ॥ २६ ॥

केवलानन्दरूपाय नमः कृष्णाय वेधसे ।

स्वामिनीहृदयानन्दकन्दलाय तदात्मने ॥ २७ ॥

मात्र मानन्दरूपवाले सृष्टि कर्ता तथा स्वामिनी राधा के हृदयानन्द के दाता एवं तद्प कृष्ण के लिए नमस्कार है ॥ २७ ॥

संसारारण्यवीथीषु परिभ्रान्तात्मनेकधा ।

पाहि मां कृपया नाथ त्वद्वियोगाधिदुःखिताम् ॥ २८ ॥

संसाररूपी अरण्य की गलियों में अनेक रूप से विचरण करनेवाले एवं आपके वियोग से दुखित, हे नाथ ! आप कृपया मेरी रक्षा कीजिए ॥ २८ ॥

त्वमेव मातृपित्रादिबन्धुवर्गादयश्च ये ।

विद्या वित्तं कुलं शील त्वत्तो मे नास्ति किञ्चन ॥ २९ ॥

हे कृष्ण ! आप ही मेरे माता-पिता, बन्धु-बान्धव आदि सभी कुछ हैं । विद्या, धन-सम्पत्ति, कुल एवं शील आदि गुण आप ही हैं । आपको छोड़कर मेरा इस संसार में कुछ भी नहीं है ॥ २९ ॥

यथा दारुमयी योषिच्चेष्टते शिल्पिशिक्षया ।

अस्वतन्त्रा त्वया नाथ तथाहं विचरामि भोः ॥ ३० ॥

जैसे लकड़ी की बनी हुई नारी-कठपुतली की भाँति जैसे-जैसे डोरी से उसे चलाया जाय चलती रहती है उसी तरह मैं भी हे नाथ ! आपके आश्रित हूँ आप जैसे मुझे प्रेरित करते हैं मैं वैसे ही विचरण करता हूँ ॥ ३० ॥

सर्वसाधनहीनां मां धर्माचारपराङ्मुखाम् ।

पतितां भवपाथोधी परित्रातुं त्वमहंसि ॥ ३१ ॥

हे स्वामि ! मैं सभी साधनों से हीन हूँ तथा मैं तो धर्माचरण से भी विमुख हूँ । अतः इस संसार समुद्र से उद्धार करने में आप ही समर्थ हैं ॥ ३१ ॥

मायाभ्रमणयन्त्रस्थामूर्ध्वाधोभयविह्वलम् ।

अदृष्टनिजसकेतां पाहि नाथ दयानिधे ॥ ३२ ॥

हे स्वामि । हे दयानिधान ! माया मोह में फंसे रहने से व्याकुल, यन्त्र के समान ऊपर नीचे दोनों ओर घूमनेवाले तथा भय से व्याकुल मुझ निरुद्देश्य चक्कर काटनेवाले की रक्षा कीजिए ॥ ३२ ॥

अनर्थेऽर्थदृशं मूढां विश्वस्तां भयदस्थले ।

जागृतव्ये शयानां मामुद्धरस्व दयापरः ॥ ३३ ॥

अनर्थ परम्परा में ही दृष्टिपात करनेवाले मूढ़ और भयदायी विषयों में ही विश्वास रखनेवाले और जागनेवालों में सोनेवाले मेरा, हे दयावान प्रभु ! उद्धार कीजिए ॥ ३३ ॥

अतीतानागत भवसन्तानविवशान्तराम् ।

बिभेमि विमुखी भूय त्वत्तः कमललोचन ॥ ३४ ॥

हे कमलनयन ! मैं अतीत एवं अनागत (भूत एवं भविष्य)में होनेवाली दुःखपरम्परा में पड़कर विवश हुआ मैं आपसे विमुख होकर भयग्रस्त हूँ ॥ ३४ ॥

मायालवणपाथोधिपयःपानरतां हि माम् ।

त्वत्सान्निध्यसुधासिन्धुसामीप्य नय माऽचिरम् ॥ ३५ ॥

क्योंकि मैं मायारूपी नमकीन समुद्र के पानी को पीने में संलग्न हूँ । अतः हे कृष्ण ! आप अपने सन्निध्यरूपी सुधा समुद्र के समीप मुझे शीघ्र ही खींच लाइए ॥ ३५ ॥

त्वद्वियोगार्तिमासाद्य यज्जीवामीति लज्जयः ।

दर्शयिष्ये कथ नाथ मुखमेतद्विडम्बनम् ॥ ३६ ॥

आपके विरहरूप विपत्ति में पड़ा हुआ मैं जो लज्जा से जीवित हूँ उस विवर्ण मुख को, हे नाथ ! मैं आपको कैसे दिखाऊंगा ? यही विडम्बना है । अतः आप स्वयं मुझे खींच लीजिए ॥ ३६ ॥

प्राणनाथ वियोगेऽपि करोमि प्राणधारम् ।

अनौचिती महत्येषा किं न लज्जयतीह माम् ॥ ३७ ॥

हे प्राणनाथ । वियोग में भी मैं प्राण धारण कर रहा हूँ- यह क्या महान अनौचित्य क्या नहीं है? मुझे तो आपके वियोग में प्राणत्याग कर देना ही उचित था । यह मुझे लज्जा नहीं प्रदान कर रहा है ? ॥ ३७ ॥

किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे प्रवदाम्यहम् ।

उत्पद्यन्ते विलीयन्ते वृत्तयोब्धो यथोर्मयः ॥ ३८ ॥

मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? किसके समक्ष मैं अपनी विपदा को कहूँ ? इस प्रकार विचार समुद्र में मेरे विचार लहरों के समान ऊपर उठते हैं और पुनः उसी में विलीन हो जाते हैं ॥ ३८ ॥

अहं दुःखाकुली दीना दुःखहा न भवत्परः ।

विज्ञाय प्राणनाथेदं यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ३९ ॥

मैं दुःख परम्परा से पीड़ित हूँ, दीन हूँ, दुःख का मारा हुआ हूँ तथा आपके परायण भी नहीं हूँ- यह सब जानकर, हे प्राणनाथ ! आप जो चाहें वही करें ॥ ३९ ॥

ततश्च प्रणमेत्कृष्णं भूयो भूयः कृताञ्जलिः ।

इत्येतद्गुह्यमाख्यातं न वक्तव्यं गिरीन्द्रजे ॥ ४० ॥

इसके बाद हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण के समक्ष बारम्बार प्रणाम करे । हे गिरिराज हिमालय की पुत्रि ! यह रहस्य मैंने आपसे बता दिया है । इसे किसी (अपात्र) को कभी नहीं बताना चाहिए ॥ ४० ॥

एवं यः स्तोति देवेशि त्रिकालं विजितेन्द्रियः ।

आविर्भवति तच्चित्ते प्रेमरूपी स्वयं प्रभुः ॥ ४१ ॥

हे देवेशि ! इस प्रकार जो जितेन्द्रिय साधक त्रिकाल में भगवान् चिदानन्दधन परात्पर परब्रह्म श्रीकृष्ण की स्तुति करता है, उसके (निर्मल) चित्त में प्रेमरूपी प्रभु स्वयं आविर्भूत हो जाते हैं ॥ ४१ ॥

॥ इति माहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे एवं ज्नानखण्डे शिवोमासंवादे सप्तचत्वारिंशपटलं श्रीकृष्णस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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