वराह स्तोत्र || Varah Stotra

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भगवान् वराह का यह स्तोत्र सब प्रकार के पाप-तापों को दूर कर देती है । जो पुरुष इस मङ्गलमयी स्तोत्र को भक्तिभाव से सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान् बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं और उनके सभी कामनाओं को पूर्ण कर देते हैं ।

अपने सफ़ेद दाँतों की नोक पर पृथ्वी को धारण कर जल से बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराह भगवान् को देखकर ब्रम्हा, मरीचि आदि को निश्चय को हो गया कि ये भगवान् ही हैं। तब वे हाथ जोड़कर वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे।

वराहस्तोत्रम्

ऋषय ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन

त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।

यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः

तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥

ऋषियों ने कहा — भगवान् अजित् ! आपकी जय हो, जय हो । यज्ञपते ! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है । आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं । आपने पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है । आपको नमस्कार है ।

रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां

दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।

छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-

स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥

देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है । इसकी त्वचा में गायत्री आदि छन्द, रोमावली में कुश, नेत्रों में घृत तथा चारों चरणों में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा — इन चारों ऋत्विजों के कर्म हैं ।

स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोः

इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।

प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते

यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥

ईश ! आपकी थूथनी (मुख के अग्रभाग) में स्रुक् है, नासिका-छिद्रों में स्रुवा है, उदर में इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानों में चमस है, मुख में प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्र में ग्रह (सोमपात्र) है । भगवन् ! आपका जो चबाना हैं, वही अग्निहोत्र है ।

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं

त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।

जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः

सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७ ॥

बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं । दोनों दाढ़े प्रायणीय (दीक्षा के बाद की इष्टि) और उदयनीय (यज्ञ समाप्ति की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ण्य (प्रत्येक उपसद के पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य (औपासनाग्नि) है तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं ।

सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः

संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।

सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-

स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८ ॥

देव ! आपका वीर्य सोम हैं; आसन (बैठना) प्रातःसवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्निष्टोम, अत्यग्निष्टोम, उक्थ, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नाम की सात संस्थाएँ हैं तथा शरीर की सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं । इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमसहित याग) रूप हैं । यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्ग को मिलाये रखनेवाली मांसपेशियाँ हैं ।

नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता

द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।

वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित

ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९ ॥

समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है । वैराग्य, भक्ति और मन की एकाग्रता से जिस ज्ञान का अनुभव होता हैं, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु हैं; आपको पुनः – पुनः प्रणाम है ।

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता

विराजते भूधर भूः सभूधरा ।

यथा वनान्निःसरतो दता धृता

मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥

पृथ्वी को धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ों की नोक पर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वन मॅ से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ।

त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं

भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।

चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा

कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥

आपके दाँतों पर रखे हुए भूमण्डल के सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरों पर छायी हुई मेघमाला से कुलपर्वत की शोभा होती है ।

संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां

लोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता ।

विधेम चास्यै नमसा सह त्वया

यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥

नाथ ! चराचर जीवों के सुखपूर्वक रहने लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वी को जल पर स्थापित कीजिये । आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारणशक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है । हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ।

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो

रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।

न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये

यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३ ॥

प्रभो ! रसातल में डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था । किंतु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्यों के आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है । आपने ही तो अपनी माया से इस अत्याश्चर्यमय विश्व की रचना की है ।

विधुन्वता वेदमयं निजं वपुः

जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।

सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिः

विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४४ ॥

जब आप अपने वेदमय विग्रह को हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदन के बालों से झरती हुई शीतल जल की बूंदे गिरती हैं । ईश ! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोक में रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ।

स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते

यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।

यद्योगमायागुणयोगमोहितं

विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥ ४५ ॥

जो पुरुष आपके कर्मों का पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आप के कर्मों का कोई पार ही नहीं हैं । आपको ही योगमाया के सत्त्वादि गुणों से यह सारा जगत् मोहित हो रहा है । भगवन् ! आप इसका कल्याण कीजिये ।

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