विस्तार ही जीवन है और संकुचन मृत्यु Vistar Hi Jivan Hai Aur Sankuchan Mratyu

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यह तभी संभव है जब ह्रदय का विस्तार हो, विस्तारित हृदय के द्वारा ही परपीड़ा की सहानभूति  की छमता मनुष्य में आती है और उसमें उपकार की भावना प्रबल होती है और वह उपकार करने में अपना सर्वस्व निछावर कर देता है यही ह्रदय का विस्तार है

परहित सरिस धर्म नहिं भाई

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।

दूसरे की आत्मा को दुख पहुंचाने के समान कोई पाप नहीं है और दूसरे को सुख पहुंचाने के समान कोई धर्म नहीं है

यदि हम कहते हैं कि पूर्व में हमने पाप किए हैं उनके नाश के लिए हम क्या उपाय करें उसका उपाय है कि इस दुनिया को सुख तो पहुंचाये पर बदले में उनसे सुख की चाह ना रखें

किसी के ऊपर ₹10000 का कर्ज है वह 1000 महीना कमाता है सब खर्चा कर देता है तो 10000 का कर्जा ज्यों का त्यों ही बना है यदि रुपया खर्च नहीं करें तो  इकट्ठा हो जाए और कर्जा उतर जाए हम दूसरों को सुख पहुंचाते हैं सेवा करते हैं पर बदले में उनसे सुख लेने की चाह बनी रहती है और उनसे सुख ले भी लेते हैं हिसाब ज्यों का त्यों बराबर हो जाता है

अर्थात सेवा का फल यही मिला और यही गया

एक भाई ने किसी के चार जूते मार दिए, दूसरे ने भी बदले में 4 जूते मार दिए तब तो मामला खत्म यदि वह नहीं मारे, और मुकदमा कर दे तो न्यायालय के द्वारा दंड मिलता है न्यायाधीश ने कहा कि 6 महीने की कैद होगी वकील ने पूछा कैद से बचने का कोई उपाय है न्यायाधीश ने कहा उपाय है जिसको जूता मारा है जाकर उसी को मना लो और यदि वह क्षमा कर दें तो मैं मुकदमा हटा दूंगा

6 महीने की जेल भोगनी अच्छी बात है या उससे क्षमा मांग लेना अपना अपराध स्वीकार कर लेना अच्छी बात है

इसी प्रकार किसी के प्रति यदि अपराध हो जाए तो उसे जाकर क्षमा मांग ले नहीं तो उसका दंड राज्य देगा यदि उससे किसी तरह की चालाकी से हम बच भी जाते हैं तो उसका दंड परमात्मा अवश्य देते हैं उस पाप के फल से हम बच नहीं सकते जितना दिन निकलता है उतना ही समझो कि वह बढ़ रहा है इसलिए किसी को दुख देना ही नहीं चाहिए

जो आदमी सुख पहुंचाता है बदले में सुख नहीं चाहता तथा नहीं लेता उसके अंतः करण में पूंजी इकट्ठी होती चली जाती है

और उसके सारे पाप समाप्त हो जाते हैं नया पाप तो हम करें ही नहीं और पहले जो पाप किए हुए हैं उनको क्षमा करवाने के लिए हम दूसरों को सुख पहुंचाएं यदि हम सेवा करेंगे तो लोग हमारी प्रशंसा करेंगे यदि प्रशंसा से आप प्रसन्न होंगे तो आपकी पूंजी घट गई

जितना सुख मिल गया इतनी पूंजी घट जाएगी तुम्हारा पुराना पाप बड़ा ही रहेगा फिर उसका दंड मिलेगा

जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई हो जो देह अभिमान और ममता से रहित हो गया हो जिसका चित्त निरंतर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है ऐसे केवल संपादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के संपूर्ण कर्म भली-भांति विलीन हो जाते हैं

निष्काम भाव से दूसरों को सुख पहुंचाना महायज्ञ है इसका फल क्या है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं जितनी दुख मिलने की पूंजी है सब समाप्त हो जाती है

हम सदा के लिए सुखी हो जाए इसका यही उपाय है कि हम सबको सुख पहुंचाएं और उसके फल की चाह न रखें और यह तभी संभव है जब स्वार्थ की आसक्ति का त्याग हो स्वार्थ की  हत्या से ही अंतःकरण की शुद्धि होती है तो और किसी के प्रति उपकार करने की भावना का विकास होता है

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