दुर्वासा ऋषि कौन थे जीवन परिचय Who was Durvasa rishi

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और ऋषियों ने हमेशा से ही अपने पुण्य प्रताप के द्वारा मानव जाति का कल्याण किया तथा उन्हें सत्य धर्म मार्ग पर चलने कि प्रेरणा भी दी ऎसे ही एक महान ऋषि है “दुर्वासा” तो आइये जानते है ऋषि दुर्वासा कौन थे:-

दुर्वासा ऋषि कौन है who was durvasa rishi

दुर्वासा ऋषि कौन थे – दुर्वासा ऋषि एक पौराणिक तथा हिंदुओं के एक महान ऋषि थे जो अपने अधिक क्रोध के कारण जाने जाते हैं।

वह महादेव शंकर के अंश से आविर्भूत हुए थे। दुर्वासा ऋषि सतयुग, द्वापर एवं त्रेता इन तीनों युगों के एक प्रसिद्ध सिद्ध योगी महर्षि थे।

दुर्वासा ऋषि के अंदर अकारण ही कभी-कभी भयंकर क्रोध आ जाता था। वह सब प्रकार के अलौकिक वरदान देने में समर्थ थे। दुर्वासा ऋषि अत्री जी सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी के मानस पुत्र माने जाते है।

दुर्वासा ऋषि की कहानी Story of rishi durvasa

दुर्वासा ऋषि और उनकी पत्नी अनसूया जी प्रतिवर्ती धर्म की परीक्षा लेने के लिए महेश विष्णु और ब्रह्मा के तीनों ही पत्नियों के अनुरोध करने पर वे चित्रकूट स्थित आश्रम में शिशु के रूप में वहां उपस्थित हुए।

वहाँ विष्णु दत्तात्रेय के रूप में ,महेश दुर्वासा के रूप में और ब्रह्मा जी चंद्रमा के रूप में उपस्थित हुए। यह कथा सतयुग के प्रारंभ से ही कहीं जा रही है जिसमें बाद में तीनों पत्नियों ने अनुरोध कर

अनसूयाजी ने कहा, कि इस वर्तमान स्वरूप में वे इन तीनों पुत्रों के रूप में ही मेरे पास रहेंगे साथ ही वे तीनों अपने पूर्ण स्वरूप में होकर भी अपने ही धाम में विराजमान रहेंगे।

महाभारत और पुराणों में भी इसका वर्णन किया गया है।जब दुर्वासा ऋषि थोड़े बड़े हुए तो वे अपने माता-पिता से आदेश लेकर अन्य जल का त्याग करके एक कठोर तपस्या करने लगे।

इस तपस्या के दौरान वे यम- नियम ,आसान? प्राणायाम ध्यान-धारणा आदि योग का अवलंबन करके वह ऐसी सिद्ध अवस्था में पहुंच गए थे

जहाँ उनको बहुत सी योग सिद्धियाँ प्राप्त हो गई थी और अब वे एक सिद्ध योगी के रूप में विख्यात होकर पहचाने जाने लगे थे।

दुर्वासा ऋषि ने यमुना किनारे उसी स्थान पर एक आश्रम का निर्माण किया और वही पर रह कर अपनी आवश्यकता के अनुसार बीच में कभी-कभी ब्राह्मण भी किया करते थे।

आश्रम में यमुना किनारे दूसरी ओर महाराज अंबरीश का बहुत ही बड़ा राजभवन था। एक राजा अंबरीष निर्जला एकादशी एवं जागरण के उपरांत में

व्रत का पालन कर रहे थे. इस समस्त क्रियाओं को संपन्न करके वह भगवत प्रसाद से पालन करें रहे थे, तभी वहाँ महर्षि दुर्वासा आ गए।

उन्हें वहाँ देखकर राजा ने उन्हें भी भोजन ग्रहण करने को कहा परंतु दुर्वासा ऋषि ने यमुना स्नान कर के आने की बात कहकर वहाँ से चले गए।

भोजन ग्रहण करने का समय काल निकलता जा रहा था इसकारण धर्म के ब्राह्मणों ने परामर्श पर एक चरणामृत ग्रहण कर लिया

और राजा को प्रणाम करना था, कि ऋषि वहाँ आ गए थे और उन्होंने क्रोधित होकर कहा, कि तुमने पहले प्रणाम करके मेरा अपमान किया है।

दुर्वासा ऋषि का आश्रम   Ashram of durvasa rishi

दुर्वासा ऋषि का आश्रम – मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के साथ-साथ मथुरा में कई ऐसे ऋषि-मुनियों की तपस्थली भी रह चुकी है।

जहाँ द्वापर युग में एक महान महर्षि दुर्वासा ऋषि ने यमुना के तट पर अपना तप किया था। जहाँ आज भी दुर्वासा ऋषि का आश्रम बना हुआ है।

यहाँ हजारों श्रद्धालु दर्शन के लिए जाते हैं। साल में एक बार वहां बसंत पंचमी के दिन बहुत ही भव्य मेला भी लगता है। दुर्वासा ऋषि का आश्रम मथुरा से करीब 2

किलोमीटर दूर लक्ष्मी नगर गांव में ऋषि दुर्वासा गौड़ीय आश्रम के नाम से स्थित है। पहला रास्ता यमुना नदी इससे नाव में बैठकर जा सकते हैं और दूसरा अब रोड से होकर जा सकते हैं।

दुर्वासा ऋषि का आश्रम एक ऊंचे टीले पर बना है। पूरे मंदिर प्रांगण में दुर्वासा ऋषि के प्रतिमाओं के अलग-अलग रूप में लगी हुई कई तस्वीरें हैं जो मंदिर को काफी भव्य बना देती हैं।

हर साल दुर्वासा ऋषि के आश्रम के दर्शन के लिए हजारों की तादाद में लोग आते हैं इस आश्रम का बसंत पंचमी पर एक अलग ही महत्व होता है। बसंत पंचमी के

दिन बसंती रंग के वस्त्र धारण कराए जाते हैं इस दिन लोग बहुत ही अच्छे मूड में नाचते हैं इस दिन के उत्सव को को बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है।

दुर्वासा ऋषि का श्राप Curse of Durvasa rishi

दुर्वासा ऋषि का श्राप – पुराणों में कहा जाता है कि जब माता सती ने अपने शरीर को त्याग कर दिया था तब उन्होंने माता पार्वती के रूप में हिमाचल पुत्री बन कर जन्म लिया था ।

भगवान शिव को पाने के लिए पार्वती ने कठोर तपस्या की थी। इस तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव विवाह के लिए राजी हो गए थे तो चारों ओर खुशियों का माहौल था।

इससे सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए भगवान शिव के विवाह की तैयारी जोरों शोरों से होने लगी। कैलाश पर्वत पर जब सभी देवता शिव के विवाह के उत्सव मना रहे थे तभी वहाँ दुर्वासा ऋषि अपनी

माता अनसूयाजी के साथ पहुंचे, उन्हें देख नारद मुनि ने दुर्वासा ऋषि से कहा मुनि श्रेष्ठ क्या आप अपनी माता को छोड़कर वापस चले जाएंगे, यह सुनकर दुर्वासा ऋषि ने कहा कि में भी शिवजी के विवाह में जाने के लिए आया हूँ।

तभी नारद मुनि ने विचार करते हुए कहा मुनि श्रेष्ठ आपको क्रोध बहुत जल्दी आता है, जिससे आप कभी भी किसी को श्राप दे देते हैं इसलिए इस विवाह में आपको क्रोध आए

और कहीं अर्थ का अनर्थ ना हो जाए तो । मुनि दुर्वासा ऋषि ने कहा कि ऐसा कदापि नहीं होगा क्योंकि मैंने अपनी माता को यह वचन दिया है,

कि वह क्रोध नहीं करूंगे और ना ही किसी को श्राप देने का कार्य करेंगे, जहाँ शिवजी थे वही दुर्वासा ऋषि जी को नंदी जी लेकर गए

और उनकी माता को उन्होंने एक अलग कक्ष में ले जाकर ठहराया। नंदी जी दुर्वासा ऋषि को वहां लें गए सभी देवतागण और शिवगण नाच गान और मस्ती मजाक कर रहे थे। सभी शिवगणों ने जब वहाँ मुनि दुर्वासा को देखा

तो उन्हें इस नाच गाने में सम्मिलित होने को कहा और फिर उन्होंने उनके साथ हंसी मजाक करना शुरू किया। यह देख मुनी दुर्वासा को लगा कि सभी शिवगण लोग उनका अपमान कर रहे हैं।

यह देख उन्हें बहुत क्रोध आया और वह अपनी माता को दिया वचन भूल कर उन्होंने सभी शिवगणों को श्राप दिया तुम्हारा यह भयानक रूप देखकर सभी कन्या के पक्ष वाले मूर्छित हो जाएंगे जब तुम उनके द्वार पर जाओगे

और उन्होंने भगवान शिव को भी श्राप देते हुए कहा कि इस रूप में तुम्हारा विवाह पार्वती के साथ नहीं होगा उनका यह श्राप सुनकर नारद ने कहा कि हे मुनि आपने यह क्या अनर्थ कर दिया इस विवाह के लिए शिवजी बड़े मुश्किल से तैयार हुए थे

और आपने यह क्या घोर अनर्थ कर दिया, इस श्राप से वहां उपस्थित सभी शिवगण बहुत चिंतित हो गए कि अब क्या होगा क्योंकि इस विवाह के लिए बड़ी मुश्किल से शिव जी को उनकी समाधि के जगाया गया था

अगर शिव जी दोबारा समाधि लगाने लगे तो पता नहीं वह कितने युगों बाद अपना ध्यान तोड़ेंगे। यह सुनकर दुर्वासा ऋषि ने अपने दुखी

मन से सोचा कि मैंने यह कैसा अनर्थ किया मैंने तो अपनी माँ को वचन दिया था कि में क्रोध नहीं करूंगा और ना ही किसी को श्राप दूंगा।

मेरे हिसाब से अब चारों तरफ सन्नाटा ही फैल गया, तभी वहाँ भगवान विष्णु प्रकट हुए और बोले कि मुनि श्रेष्ठ आप तनिक भी संचौक ना करें शिव और पार्वती का विवाह होना तो विधि के विधान में पहले से ही तय है।

ऋषि दुर्वासा अन्य कहानी  Other story of rishi durvasa

ऋषि दुर्वासा की कई कहानियाँ है जिनमें कुछ प्रमुख कहानियों का वर्णन किया गया है.

  • ऋषि दुर्वासा और शकुंतला कहानी Rishi durvasa shaknutala story 

कालिदास द्वारा लिखित अभिज्ञानशाकुन्तलम् में बताया गया कि ऋषि दुर्वासा ने शकुंतला से कहा कि वे उनका स्वागत सत्कार करे, लेकिन शकुंतला जो अपने दुष्यंत का इंतजार कर रही थी

उसने ऋषि दुर्वासा से ऐसा करने को मना कर दिया. तब ऋषि दुर्वासा क्रोध में आ गए और शकुंतला को श्राप दिया कि उसका प्रेमी उसे भूल जाये. तब शकुन्तला ऋषि दुर्वासा से माफ़ी मांगने लगी ,

फिर ऋषि बोले कि दुष्यंत उन्हें तब पहचानेगा जब वो तुम्हारे पास अपनी दी हुई अंगूठी देखेगा, ऋषि दुर्वासा ने जैसा कहा था वैसा ही हुआ.

शकुंतला और दुष्यंत फिर मिल गए, और सुख से अपना जीवन व्यतीत करने लगे, उनका एक बेटा हुआ जिसका नाम है “भरत“इन्ही महान भरत के नाम पर अपने देश का नाम पड़ा भारत

  • ऋषि दुर्वासा और कुंती की कहानी Rishi  durvasa or kunti story 

महाभारत की ऐसी बहुत सी कथाएँ प्रचलित है,जिसमें ऋषि दुर्वासा से लोगों ने वरदान प्राप्त किये इन्ही में से एक है पांडव की माता कुंती और दुर्वासा से जुड़ी कथा.यह कथा उस समय की है

जब कुंती एक जवान लड़की थी, जिसे राजा कुंतीभोज ने गोद लिया था। राजा अपनी बेटी का एक राजकुमारी की तरह पालन पोषण करते थे. एक बार महर्षि दुर्वासा महाराज कुन्तिभोज के यहाँ मेहमान बनकर गए.

वहाँ कुंती ने पूरे मन से ऋषि की सेवा की. कुंती ने ऋषि के गुस्से को जानते हुए, समझदारी के साथ उनकी सेवा की और खुश किया.

ऋषि दुर्वासा भी कुंती की इस सेवा से बहुत प्रसन्न  हुए, और जाते वक्त उन्होंने कुंती को अथर्ववेद मन्त्र का ज्ञान दिया,

जिससे कुंती अपने मनचाहे देव से प्रार्थना कर संतान प्राप्त कर सकती थी, तभी आतुरतावश मन्त्र का चमत्कार देखने के लिए कुंती शादी से पहले सूर्य देव का आह्वान करने लगी, तब उन्हें कर्ण प्राप्त हुआ

जिसे लोक लाज के भय से नदी में बहा दिया गया। फिर इसके बाद उनकी शादी पांडू से हो गयी तथा आगे उन्होंने इसी तरह मन्त्र का प्रयोग कर पांडवों को जन्म दिया जो वीर और धर्म के महान ज्ञाता हुये।

  • दुर्वासा ऋषि रामायण की कहानी Durvasa rishi Ramayan story 

वाल्मीकि रामायण के उत्तर कांड के समय एक बार ऋषि दुर्वासा राम के पास गए, जहाँ लक्षमण श्रीराम के दरबारी बन कर खड़े रहते है, तब ऋषि उनसे अंदर जाने की इच्छा प्रकट करने लगे.

उस समय राम मृत्यु के देवता यम के साथ किसी विषय में गहन बात कर रहे थे, बात शुरू होने से पहले यम राम को कहते है कि उनके बीच में जो भी बातचीत होगी वो किसी को ज्ञात नहीं होना चाहिए,

और बात के बीच में अगर कोई कमरे में आकर देखता या सुनता है तो मार दिया जायेगा. श्रीराम ने इस बात की हामी भर दी और अपने भरोसेमंद भाई लक्ष्मण को दरवाजे के बाहर खड़ा करके पहरा देने को कहा

दुर्वासा जब राम से मिलने की जिद करने लगे तो  लक्षमण उनसे प्यार से बोलते है कि वे राम की बात ख़त्म होने का इंतजार यहीं करें. किन्तु ऋषि इस बात से क्रोधित हो गए और कहने लगे कि

अगर लक्ष्मण राम से उनके आगमन के बारे में नहीं बताते है तो वे पूरी अयोध्या को श्राप दे देंगें. लक्ष्मण धर्म संकट में पड़ गए और सोचने लगे कि पूरी अयोध्या के लोगों को बचाने के लिए उनका खुद का बलिदान देना ठीक होगा

तब बे राम जी के पास अंदर जाकर ऋषि दुर्वासा के आगमन की बात बताते है. राम यम के साथ अपनी वार्तालाप ख़त्म करके तुरंत ऋषि के पास उनकी सेवा के लिए चले गए.

श्रीराम ऋषि दुर्वासा की आव भगत करने लगे, जिसके बाद ऋषि चले गए, इसके बाद राम को अपनी बात याद आयी वे अपने पुत्र जैसे भाई लक्ष्मण को कैसे मारेंगे लेकिन यम को दिए वचन के चलते

वे दुविधा में पड गए राम इस दुविधा के हल के लिए गुरु वशिष्ठ से मिले। वशिष्ठ, ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि वे श्रीराम से दूर चले जाएँ यही लक्ष्मण की मृत्यु जैसा होगा इसके बाद लक्ष्मण अपने पिता समान भाई को छोड़, सरयू नदी के तट पर चले गए।

  • दुर्वासा ऋषि और श्री कृष्ण Durvasa rishi or bhagwan shri krishna

दुर्वासा ऋषि ने भगवान श्री कृष्ण के दर्शन बाल गोपाल रूप में ब्रज में किए थे और यह माना था की नंद का लाल ही पृथ्वीपति परम परमेश्वर साक्षात श्री हरि विष्णु हैं।

एक बार जब दुर्वासा ऋषि हस्तिनापुर दुर्योधन के महल गए थे, तो दुर्योधन ने दुर्वासा ऋषि का आदर सत्कार बड़े ही विनम्र भाव से किया। और कहा प्रिय पांडव भी निकट ही रहते हैं, आप वहाँ अवश्य जाइएगा।

दुर्वासा ऋषि अपने अन्य साथियों के साथ पांडवों के पास जा ही रहे थे कि उन्हें युधिष्ठिर रास्ते में ही मिल गए तथा दुर्वासा ऋषि ने भोजन करने का निर्णय लिया

और कहा कि हम स्नान करके अभी आपकी कुटिया में आते हैं, किंतु महारानी द्रोपती की रसोई में तो कुछ भी नहीं था।

उनकी रसोई में केवल चावल का एक तिनका था। तभी द्रोपती ने भगवान श्री कृष्ण का ध्यान किया और भगवान श्री कृष्ण तुरंत आ गए।

द्रोपती ने कहा कि आज दुर्वासा ऋषि अपने अन्य ऋषियों के साथ यहाँ भोजन के लिए पधारने वाले और महारानी द्रोपती की रसोई में एक चावल के अलावा और कुछ नहीं है।

अगर हम उन्हें भोजन नहीं करा पाए तो अनर्थ हो जाएगा। यह बात सुनते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने चावल का वह एक दाना उठा कर खा लिया, जिससे संसार के समस्त प्राणियों की भूख मिट गई।

दुर्वासा ऋषि तथा अन्य ऋषि मुनियों का पेट अपने आप ही भर गया तथा वे जल्दी ही वहाँ से निकल गए। इस प्रकार से भगवान श्री कृष्ण ने पांडवों को दुर्वासा ऋषि के श्राप से बचाया

  • दुर्वासा ऋषि एंड हनुमान Durvasa rishi or hanuman

दुर्वासा ऋषि अत्यंत क्रोधी स्वभाव के थे। उनका क्रोध पर नियंत्रण ही नहीं होता था। इसलिए थोड़ी सी भूल चूक के कारण ही वह श्राप दे देते थे।

दुर्वासा ऋषि ने हनुमान जी की माता अंजना को भी श्राप दिया था। एक बार ऋषि दुर्वासा जब स्वर्ग लोक इंद्र के दरबार में बैठे हुए थे, तो वहाँ पर पुंजिकस्थला अप्सरा बार-बार अंदर बाहर आ जा रही थी।

जिससे सभी लोगों का ध्यान भटक जाता था। इससे क्रोधित होकर दुर्वासा ऋषि ने पुंजिकस्थला को वानरी होने का श्राप दे दिया।

इसके कुछ वर्षों बाद पुंजिकस्थला ने विरज नामक वानर की पत्नी के गर्भ से जन्म और उनका नाम अंजनी रखा गया। जब अंजनी जवान हुई तो उनका विवाह, वानर राज केसरी से कर दिया गया।

वानर राज केसरी से विवाह होने के उपरांत उन्होंने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम था मारुती, जो स्वयं शिव शंकर के रूद्र अवतार थे।

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