महर्षि दधीचि कौन थे | महर्षि दधीचि का त्याग और जीवन परिचय हिंदी में who was maharishi dadhichi

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महर्षि दधीचि का परिचय Introduction of maharishi dadhichi

महर्षि दधीचि के जन्म से जुड़ी हुई ऐसी बहुत सारी कथाएं जो उनके त्याग और बलिदान की गाथाएँ वयां करतीं है। ऐसी अनेक कथाएं इनकी तपस्या के संबंध में प्रचलित है।

वृत्रासुर का संहार इंद्र ने इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से किया था। कई लोग ऐसे हैं जो आधुनिक मिश्रितखतीथ॔ को इनकी तपोभूमि बताते हैं।

कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि उनका प्राचीन नाम ‘दध्यंच‘ था। यास्क के मतानुसार महर्षि दधीचि के पिता ‘अथर्वा‘ और उनकी माता ‘चित्ती‘ थे, इसलिए इनका नाम ‘दधीचि’ रखा गया था।

किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या ‘शांति‘ के गर्भ से उत्पन्न अथर्व के पुत्र माने जाते हैं।

वे हमेशा दूसरों की मदद करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके इससे व्यवहार से वे जीवन में रहते थे वहां के पशु-पक्षी भी उनसे संतुष्ट थे।

उनका आश्रम गंगा के तट पर था। जो भी वहां उस आश्रम में आते थे तो महर्षि और  उनकी पत्नी उनका  पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे।

ऐसे तो भारतीय इतिहास में कई दानी हुए हैं लेकिन जन कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले एकमात्र महर्षि दधीचि थे।

असुरों का संहार केवल दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र के द्वारा हो सकता है ऐसा देवताओं के मुख से जानकर  महर्षि दधीचि ने अपने शरीर को त्याग करके अपनी अस्थियों को दान कर दिया था।

महर्षि दधीचि के पुत्र का नाम Maharishi dadhichi ke putra ka naam

महर्षि दधीचि के पुत्र का नाम पिपलाद था। जो उन्हें भगवान शिव शंकर की कठोर तपस्या के फलस्वरूप प्राप्त हुआ था।

किन्तु पिपलाद की माँ ने जन्म से पूर्व ही पिपलाद का त्याग गर्भअवस्था में कर दिया था। कियोकि वह अपने पति के साथ सती होना चाहती थी।

यह घटना उस समय की है, जब देवताओं ने वत्रासूर को मारने के लिए बज्र नामक अस्त्र का निर्माण हेतु महर्षि दधीचि की हड्डियाँ माँगी थी।

तब महर्षि दधीचि ने अपने शरीर का त्याग कर दिया। उसी समय महर्षि दधीचि की पत्नी गर्भवती थी। और वे अपने पति के साथ सती होना चाहती थी।

इसलिए देवताओं ने उनके गर्भ को पीपल को सौप दिया जिसकारण दधीचि पुत्र का नाम पिपलाद पड़ गया।

महर्षि दधीचि के वंशज Maharishi Dadhichi ke vanshaj

यास्क के कथन के अनुसार महर्षि दधीचि के पिता का नाम अथर्वा तथा माता का नाम चिति था। किंतु कुछ पुराणों में बताया गया है

कि महर्षि दधीचि का जन्म कर्दम ऋषि की पुत्री शांति के गर्भ से हुआ था। महर्षि दधीचि प्राचीन काल के एक महान पुरुषकारी ऋषि थे

जिनका विवाह गभस्तिनी देवी से हुआ था। महर्षि दधीचि का 1 पुत्र था जिसका नाम था पिप्पलाद जो आगे चलकर एक महान तपस्वी और ऋषि बना।

महर्षि दधीचि का आश्रम Maharishi dadhichi ka ashram

त्याग परोपकार तथा जन कल्याण के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले दधीचि ऋषि का आश्रम उत्तर प्रदेश की सीतापुर जिले की तहसील मिश्रित में है।

यहीं पर महर्षि दधीचि ने भस्मासुर राक्षस को मारने के लिए देवताओं को अपने शरीर की हड्डियाँ सुपुर्द की थी। यहां पर आज भी महर्षि दधीचि का मंदिर बना हुआ है।

महर्षि दधीचि का त्याग Secrifice of maharishi dadhichi

महर्षि दधीचि त्याग के साथ अन्याय का प्रतिकार भी करते थे। महर्षि दधीचि ने अपना संपूर्ण जीवन भगवान शिव की तपस्या में गुजारा था। यह सदा दूसरों की मदद के लिए तत्पर थे।

वे इतने परोपकारी थे कि उन्होंने अपनी अस्थियों का त्याग कर दिया था। एक बार महर्षि दधीचि लोकहित के लिए कठोर तपस्या कर रहे थे उनके इस तप के तेज से तीनों लोक आलोकित हो उठे।

देवराज इंद्र के चेहरे का तेज जाता रहा क्योंकि उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था कि

महर्षि उनके सिहासन को उनसे छीनना चाहते हैं। देवराज इंद्र ने इस कारण महर्षि दधीचि के पास उनकी तपस्या को भंग करने के लिए कामदेव और एक अप्सरा को भेजा किन्तु ये दोनों दधीचि की तपस्या को भंग करने में असफल रहे।

देवराज इंद्र ने उनकी हत्या के इरादे से महर्षि दधीचि के पास अपनी सेना के साथ पहुंच गए किन्तु देवराज इंद्र के अस्त्र शास्त्र महर्षि दधीचि के तप के कवच को भी तोड़ ना सके और

वे बिल्कुल शांत भाव से समाधिस्थ होकर बैठे रहे और देवराज इंद्र हार कर वापस लौट गए। इस घटना के घटित होने के बाद ही वृत्रासुर ने पूरे देवलोक पर कब्जा कर लिया।

देवराज इंद्र और सभी देवता मारे- मारे फिरने लगे। वृत्रासुर का अंतर केवल एक वज्र से हो सकता है यह प्रजापिता ब्राह्म ने बताया कि महर्षि दधीचि की अस्थियों से बना वज्र ही वृत्रासुर का अंत कर सकता है।

ब्रह्मा ने कहा कि उनके पास जाकर उनकी अस्थियां मांगो, यह सुनकर देवराज इंद्र सोच में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि मैं जिनकी हत्या करने का प्रयास कर चुका था वह उनकी सहायता क्यों करेंगे?

देवेंद्र महर्षि दधीचि के पास पहुंचे और कहा कि तीनों लोक को बचाने के लिए हमें आपकी अस्थियां चाहिए। यह सुनकर दधीचि ने बड़े ही विनम्रता से कहा कि लोक हित के लिए मैं अपना शरीर तुम्हें दे देता हूं।

देवराज इंद्र उनकी ओर आश्चर्य से देखते ही रह गए और महर्षि दधीचि ने अपना शरीर योग विद्या से त्याग दिया। दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से देव इंद्र ने वृत्रासुर को मार कर तीनो लोकों को सुखी कर दिया।

दधीचि ने अपना शरीर लोकहित के लिए त्याग कर दिया था क्योंकि वह जानते थे कि शरीर नश्वर होता है और इसे 1 दिन मिट्टी में मिलना है। इसलिए महर्षि दधीचि अपने शरीर पर मिष्ठान लेपन लगाकर समाधिस्थ बैठ गये।

दधीचि के शरीर को कामधेनु ने चाटना आरंभ कर दिया, कुछ ही समय के बाद महर्षि के शरीर से त्वचा मांस और मज्जा अलग होने लगी। मानव देह स्थान पर बस उनकी अस्थियां है बची रह गई।

देवराज इंद्र ने महर्षि दधीचि की अस्थियों को श्रद्धापूर्वक नमन किया और उनकी अस्थियों को ले जाकर उन हड्डियों से तेजवान नामक वज्र बनाया। इस वज्र के बल पर देवराज इंद्र ने वृत्रासुर को ललकारा।

और इंद्र तथा वृत्रासुर के बीच बहुत ही भयानक युद्ध हुआ लेकिन वृत्रासुर ‘तेजवान’ वज्र के आगे अधिक समय तक टिक नहीं पाया।

वृत्रासुर को देवराज इंद्र ने वज्र से प्रहार कर मार डाला। उसकी मृत्यु होने के बाद सभी देवता उसके भय से मुक्त हो गए।

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