Bhagwati Charan Vohra In Hindi Biography | भगवती चरण वोहरा का जीवन परिचय : महान क्रांतिकारी व हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य

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भगवतीचरण बोहरा का जीवन परिचय, जीवनी, परिचय, इतिहास, जन्म, शासन, युद्ध, उपाधि, मृत्यु, प्रेमिका, जीवनसाथी (Bhagwaticharan Bohra History in Hindi, Biography, Introduction, History, Birth, Reign, War, Title, Death, Story, Jayanti)

भगवती चरण वोहरा, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी थे। वे हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य और भगत सिंह के साथ ही एक प्रमुख सिद्धांतकार होते हुए भी गिरफ्तार नहीं किए जा सके और न ही वे फांसी पर चढ़े। उनकी मृत्यु बम परिक्षण के दौरान दुर्घटना में हुई।

भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय:

भगवतीचरण वोहरा का जन्म 15 नवंबर 1903 में हुआ। उनके पिता शिवचरण वोहरा लाहौर की रेलवे सेवा प्रारम्भ की। 13 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह एक 10 वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न कर दिया गया था। ऐसी कच्ची उम्र में विवाह के बन्धन बाँध दिये गये।

अंग्रेजों के अत्याचारी, अनाचारी, दुराचारी, छल-कपट एवं विश्वासघाती कुशासन ने भारतीय जनता के मन में एक बार फिर असन्तोष की आग भड़का दी थी। इससे पूर्व 1857 में भारतीय स्वाधीनता के असफल हो जाने के पश्चात् नये खून में पुनः जोश जाग उठा था

और देश के हर कोने में वे गुप्त रूप से संगठित में हो भारत की धरती से गोरी सरकार को बाहर निकाल देने के लिए जनता का सक्रिय सहयोग चाहता था। सामाजिक बुराइयों और आपसी फूट को तिलांजलि दे एकता के सूत्र में बंधकर ही अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने के लिए नया खून पंजाब में भी पीछे नहीं था।

गोरी सरकार के दमनचक्र से बचने के लिए वे लोग भूमिगत हो जाते, फरारी का जीवन काटने पर अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए जागरूकता के साथ उन पर करारी चोट करते, जनसाधारण को क्रान्ति का रहस्य समझाते।

अठारह वर्षीय शहीद नवयुवक कर्त्तार सिंह जो 1914 के लाहौर षड्यन्त्र केस के मुकदमे के परिणामस्वरूप हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे को चूमने में झिझका नहीं, उसकी बरसी भगवती वोहरा ने सार्वजनिक रूप से चित्र उद्घाटन समारोह में बड़ी निर्भीकता से मना डाली।

भगवतीचरण वोहरा का बाल्यकाल

उस समय का दाम्पत्य जीवन पति-पत्नी के लिए मात्र गुड्डे-गुड़िया का खेल सदृश आज लग सकता किन्तु अपनी पुरानी परिपाटी एवं परम्परानुसार विवाह कर दोनों परिवार के सम्पन्न सदस्यों ने अपने कर्तव्यों से मुक्ति प्राप्त कर ली थी।

पत्नी का नाम दुर्गावती था। विवाहोपरान्त भी दोनों पति-पत्नी शिक्षा ग्रहण करने में जागरूक रहे। जिस समय देश में असहयोग आन्दोलन की आँधी चल रही थी भगवतीचरण ने अपनी इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।

गोरी सरकार जनता में मची उथल-पुथल पर पूरी निगरानी रखते हुए अपना दमनचक्र चला रही थी। नौजवानों ने अपना सीना ब्रिटिश सत्ता की बन्दूकों के सामने निडरता से खुला छोड़ दिया था। एक-दूसरे से आगे बढ़कर आत्म-बलिदान करने की जैसे उनमें होड़ लगी थी।

क्रान्ति के लिए सभी सम्प्रदायों के संगठन की एकजुट एकता की आवश्यकता पर वे बल दे रहे थे। उनका एक ही लक्ष्य था कि जनता आपसी फूट, अविश्वास, रूढ़िवादिता और सामाजिक संकीर्णता जैसी बुराइयों की दलदल से बाहर निकलकर अपने अधिकारों की लड़ाई में एकजुट होकर विदेशी आतताइयों से लोहा लेने के लिए खड़ी हो जाये।

यह लड़ाई आर-पार की लड़ाई हो, जब तक अंग्रेजों को भारतवर्ष की धरती से बाहर न खदेड़ दिया जाये। तभी देश की जनता को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक दासता के छुटकारा मिल सकता था। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

धीमे-धीमे जनता में जोश की लहर उठी, नवयुवकों की आस्था के प्रति उनकी भावना में बदलाव आया और वे भी कन्धे-से-कन्धा मिलाकर नये खून की अगवानी के लिए अपना सर्वस्व आजादी की लड़ाई में न्यौछावर करने के लिए आगे बढ़ने लगे।

भगवती बोहरा के पिताजी का नाम पंडित शिवचरण वोहरा था। रेलवे दफ्तर ऊँचे पद पर होने कारण अंग्रेजी सरकार द्वारा ‘राय साहब’ के खिताब विभूषित किये गये थे। इनके पिता अर्थात् वोहरा जी के दादा जी गुजरात आगरे आकर बसे थे।

उन दिनों ‘हिन्दी टाइप’ के अभाव के कारण दादा जी आजीविका का साधन हिन्दी किताबत था। प्रतिदिन रुपया प्राप्त करते ही अपने घर पर आकर पारिवारिक जीवन का आनन्द उठाते।

भगवतीचरण वोहरा के क्रान्तिकारी कदम

लाला लाजपत राय के प्रयत्नों से लाहौर में नेशनल कॉलेज की नींव पड़ी जिसमें देशभक्त विद्यार्थियों को ज्ञानोपार्जन के लिए प्रवेश की व्यवस्था थी। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

इस कॉलेज के व्यवस्थापक थे भाई परमानन्द जिनकी प्रेरणास्वरूप छात्र विद्याध्ययन के लिए दाखिला लेते। उस समय विद्यार्थियों के मन में नौकरी प्राप्त करना कोई उद्देश्य नहीं था, न उनके जीवन का लक्ष्य। महात्मा गांधी ने सरकारी कॉलेजों की

पढ़ाई के बहिष्कार के लिए आवाहन किया था ऐसी स्थिति में देश के नवयुवकों ने त्याग की भावना से आदेश पालन किया। गांधी जी की अहिंसा नये खून को अधिक दिनों तक अपनी सीमा में बाँधे न रख सकी।

कॉलेज के असन्तुष्ट विद्यार्थियों में भगवतीचरण वोहरा भी थे जो भगत सिंह, यशपाल, सुखदेव आदि के सम्पर्क में आने के पश्चात् महात्मा गांधी के विचारों से निराश हुए। अहिंसा के माध्यम से आजादी प्राप्त करने का सपना पूरा होता उन्हें नजर आता अहिंसा से अंग्रेज भारत छोड़नेवाले नहीं हैं ऐसा उनका विश्वास दृढ़ होता चला गया।

जब हथियार उठाने ही तो विलम्ब करने से हानि क्यों उठायी जाये? सहयोग आवश्यक था इसलिए जनसाधारण में उम्र राष्ट्रीय भावना जागृति के लिए ‘नौजवान भारत सभा’ गठित की गयी। नये खून असहयोग आन्दोलन एकदम नकार दिया।

क्रान्तिकारी विचारों से ओत-प्रोत, उन्हें वामपंथी नेताओं डॉक्टर सत्यपाल, डॉ. किचलू और केदार नाथ अग्रवाल जैसे जुझारू एवं कर्मठ व्यक्तियों का सहयोग भी मिल गया। तब भगवतीचरण वोहरा के मन सशस्त्र क्रान्ति की ज्वाला भली प्रकार सुलग उठी थी। सभी साथी एकमत होकर एकता से सूत्र में मजबूती से बँधते चले गये।

भगवतीचरण वोहरा का गोल गम्भीर चेहरा, कसरती बदन, आँखों पर सुनहरी ऐनक और गठीला फुट ऊँचा कद, सभी को अपने व्यक्तित्व आकर्षित करने में सक्षम था। अन्य साथी होस्टल आदि में गोपनीय ढंग से संगठन कार्य करते किन्तु भगवती भाई बड़ी निडरता से अपने ‘शिव निवास’ को ही क्रान्तिकारियों का अड्डा बना लिया था।

क्योंकि उत्तरोत्तर एक ही जिज्ञासा बलवती होती चली गयी-‘अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ने के लिए जब हथियार उठाने ही पड़ेंगे तो अधिक विलम्ब करना बुद्धिमानी नहीं। हमें अपने पैरों पर खड़े होने के लिए हथियारों का भंडार चाहिए।

इस साहसिक संघर्ष में दुर्गावती भाँप गयी थी कि पारिवारिक स्थिरता के लिए विद्याध्ययन अनिवार्य है। इसीलिए उसने प्रभाकर परीक्षा उत्तीर्ण कर महिला कॉलेज में लेक्चरार पद प्राप्त कर भगवती वोहरा को घरेलू बन्धनों से मुक्त करने का प्रयत्न किया जिससे क्रान्ति की ज्वाला निरन्तर प्रज्वलित रह सके।

सरकार विरोधी क्रिया-कलापों के कारण आर्थिक कठिनाइयों के साथ-ही-साथ अचल सम्पत्ति किसी भी क्षण जब्त की जा सकती थी। अपने पैरों पर खड़े होकर दुर्गावती ने नवयुवकों के शक्तिशाली संगठन में अपना सक्रिय योगदान देने के लिए तन, मन, धन अर्पण करने की बात मन में ठान ली थी।

उन्होंने बड़े साहस के साथ भगवती वोहरा का हर क्षेत्र में आगे बढ़कर कन्धे-से-कन्धा मिलाकर साथ दिया। सन् 1925 में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सेना’ के पर्चे जनता में वितरित करने के लिए श्री जयचन्द्र विद्यालंकार के सूत्रों से जब प्राप्त हुए तो उनका वितरण केन्द्र ग्वालमंडी स्थित भगवती भाई का मकान शिव निवास’ ही बनाया गया।

उनका उद्देश्य जनता में फैली धार्मिक संकीर्णता और साम्प्रदायिकता को समूल नष्ट करने का था जिससे जनता अंग्रेजों के विरुद्ध असली लड़ाई के लिए सहर्ष तैयार हो जाये। संगठन समय-समय पर सार्वजनिक व्याख्यानों का प्रबन्ध कराता जिनमें साम्प्रदायिक आदर्शवाद का भंडा फोड़कर भौतिकवाद के परिचय से जनता को शिक्षित करते।

इस कार्य में मुसलमान सहयोगियों में फजल मन्सूर एवं एहसान में अली के नाम उल्लेखनीय हैं जो इस्लाम में प्रचलित कट्टरवाद से सावधान रहने की हिमायत करते थे। सभी का केवल एक सपना था- ‘अंग्रेजों को भारत से बाहर खदेड़ना है, चाहे जान भले ही चली जाये।

इसी वर्ष भगवती भाई के घर में पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ। बड़े चाव से दुर्गा भाभी ने उसका नाम रखा ‘शचीन्द्र’ जो वयस्क होने पर आगे चलकर पंजाब में इंजीनियर के पद पर आसीन हुए। अब वे सार्वजनिक रूप से कार्य न करके गुप्त संगठन के प्रति अधिक जागरूकता दिखाने लगी थीं।

कांग्रेस इस समय दो दलों में बंटी थी। लाला लाजपतराय की नेशनलिस्ट पार्टी एवं मोतीलाल नेहरू की ‘स्वराज्य पार्टी’। विदेशी शासन के खिलाफ मात्र ‘नौजवान भारत सभा’ ही क्रान्तिकारी संगठन थी जो जान की बाजी लगा रही थी। लेकिन इसके तथाकथित मुखिया जयचन्द्र ने ईर्ष्यालु प्रवृत्ति के कारण क्रान्ति का बिगुल अंग्रेजों के विरुद्ध नहीं भगवती भाई के खिलाफ बजा रखा था।

भगवती खतरनाक जासूस है, सी.आई.डी. का आदमी है, कम्युनिस्टों का पैसा हड़प गया, नौजवान सभा को अब ले डूबेगा संगठन बचाना है तो भगवती जासूस से बचो।” इस ओछे हथियार से जयचन्द्र ने दल का अगुआ बने रहने का सपना आँखों में सँजो रखा था। उसने सारे संगठन के कार्यकर्ताओं में घिनौने प्रचार से पूर्णतया उन्हें भ्रमित कर दिया था।

कारण यह कि एक बार किसी के विरुद्ध सन्देह व्यक्त कर दिया जाये सही लोग भी गलत समझ लिये जाते हैं और यह तो क्रान्तिकारी संगठन था जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को हर समय अपनी जान जोखिम में नजर आती। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

चारों ओर यही सुना जाने लगा कि खास सूत्रों से जानकारी मिली है। भगवती जासूस है, सी. आई.डी. का आदमी और यह अफवाह क्रान्तिकारी दल में ही नहीं नौजवान भारत सभा और कांग्रेस में भी बुरी तरह फैला दी गयी। दल में बिखराव की स्थिति बन गयी।

भगवती सी.आई.डी. का दलाल है अन्य प्रान्तों में भी प्रचारित करा दिया गया क्योंकि वहाँ के लोग जयचन्द्र को पंजाब का मुखिया ही समझते थे। लोगों ने विश्वास भी आसानी से कर लिया कि सम्भव है यह अंग्रेजों की बड़ी चाल हो।

दल के अन्य सदस्यों की सुरक्षा हेतु भगत सिंह ने मर्माहत होकर यशपाल को गुप्त रूप से भगवती भाई की छानबीन के बाद गोली से उड़ाने का आदेश दे दिया किन्तु भगवती के विरुद्ध आरोपित तथ्य प्रमाणित नहीं हुए, वे अग्नि परीक्षा से सोने के समान खरे निकल आये। जयचन्द्र की साख दल के लोगों में गिरनी प्रारम्भ हो गयी।

दिल्ली में 8 और 9 सितम्बर, 1928 को – जिसमें अन्य प्रान्तों के सदस्यों ने संगठित हो हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र सेना के नाम से दल बनाया-बैठक में निर्णय हुआ कि दल के सारे शस्त्र एवं धन केन्द्रिय समिति के हाथों में होंगे और दल का कमांडर-इन-चीफ बनाया गया लौह पुरुष चन्द्रशेखर आजाद को।

अभी तक दल पूरी तरह संगठित नहीं हो पाया था और अस्त्र-शस्त्रों के अभाव के साथ आर्थिक संकट भी मुँह बाये खड़ा था। इसी समय ब्रिटिश पार्लियामेंट ने भारत के शासन में सुधार हेतु ‘साइमन कमीशन’ हिन्दुस्तान भेजा।

इस कमीशन में कोई भारतीय न रखने के कारण भारतीयों ने इसके बहिष्कार की योजना बना डाली। देश में सभी जगह पूर्ण हड़ताल, काले झंडे और नंगे सिरों की बाढ़ के समान पंजाब की जनता ने भी लाला लाजपतराय के नेतृत्व में बगावत का झंडा उठाया- ‘साइमन लौट जाओ।

पंजाब केसरी जुलूस के आगे-आगे बढ़ते गये। पीछे-पीछे बहुत बड़ी जनता के समुदाय का विशाल विस्तृत सागर। कमीशन बहिष्कार की अगुआई नौजवान सभा की सक्रियता का फल था। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

पुलिस सुपरिंटेंडेंट स्काट के आदेश से पुलिस ने जनता के जुलूस पर क्रूरतापूर्ण लाठियों की वर्षा कर डाली जिसके फलस्वरूप पंजाब केसरी लाला लाजपतराय डी.एस.पी. सांडर्स की लाठी से सिर पर गहरी चोटों से आहत हो जमीन पर गिर पड़े। दूसरे दिन 17-11-28 को लाला जी का देहान्त हो गया जिससे जनता के हृदय की चिनगारी भड़क उठी।

क्रान्तिकारी दल ने पहले एस. पी. स्काट को गोली मारने का निश्चय किया किन्तु फैसला सर्वसम्मति से यह लिया गया कि डी. एस. पी. हत्यारे सांडर्स को ही गोली मारी जाये जो स्वयं हत्या का अपराधी है। लाला जी की हत्या हमारा राष्ट्रीय अपमान है।

इस कार्य योजना की सफलता के लिए भगत सिंह और राजगुरु को आदेश दिया गया कि वे सांडर्स की इहलीला तत्काल समाप्त कर डालें। चन्द्रशेखर आजाद दोनों की सुरक्षा के समय व्यक्तिगत रूप से मोर्चा सँभालेंगे। सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी गयी।

दूसरे दिन क्रान्तिकारी दल की ओर से शहर के सभी प्रमुख स्थानों पर चिपके पर्चे अंग्रेजी भाषा में लिखे पाये गये-‘सांडर्स की हत्या कर लाला लाजपत राय की हत्या का बदला ले लिया गया। भगवतीचरण वोहरा अन्य साथियों के समान भूमिगत होकर कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने कलकत्ते पहुँच गये।

इसी दौरान ‘मेरठ षड्यन्त्र’ की गिरफ्तारियाँ शुरू हो गयी थीं। भगवती भाई के घर की तलाशी ली गयी। वे भूमिगत हो गये अन्यथा पकड़ लिये जाते। लाहौर में उथल-पुथल मच गयी। ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातन्त्र संघ’ ने हत्या के सन्दर्भ में अपना स्पष्टीकरण अंग्रेजी के पर्चे छाप कर प्रचारित किया।

मनुष्य का रक्त बहाने के लिए हमें खेद है लेकिन एक राष्ट्रीय नेता की अपमानजनक मृत्यु के बदले क्रान्ति के स्थल पर खून बहाना भी अनिवार्य हो जाता है। हमारा उद्देश्य ऐसी क्रान्ति से है जो मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त कर देगी।’ घोषणा पत्र के नीचे हस्ताक्षर अंकित थे-बलराज, कमांडर-इन-चीफ इधर कांग्रेस अधिवेशन कलकत्ते में शुरू हो चुका था।

भारी धर-पकड़ शुरू होने पर जब भगत सिंह भी कई दिन पुलिस की आँखों से ओझल नजर आये तो निगरानी कड़ी कर दी गयी। भगत सिंह का तत्काल लाहौर से बाहर निकलना कठिन प्रतीत होने लगा। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

सर्दी में कलकत्ता मेल लाहौर से प्रातः 6 बजे कलकत्ते के लिए छूटती थी। तड़के पौ फटते ही एक लम्बे कद साहब ओवर कोट के कालर उठाये, माथे पर हैट खींचे, अपने चेहरे को गोद में बैठे बेटे की आड़ में छुपाये प्लेटफार्म पर पहुँचे।

उनकी ‘मेम साहब’ मुखमंडल पर ढेर सा पाउडर मले, ऊँची एड़ी की सैंडिल्स पहने खट्-खट् करती तेजी से साहब के पीछे-पीछे चल रही थी। दोनों के साथ सर्दी में ठिठुरता साधारण सा समान उठाये चल रहा था उनका नौकर। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

ये थे-भगत सिंह, दुर्गा भाभी, उनका छोटा शिशु शचीन्द्र और साथ में नौकर के वेश में राजगुरु ‘साहब’ और नौकर दोनों की कमर में कसे थे गोली-भरे रिवाल्वर जो पुलिस के सन्देह होने पर आग उगलने लगते। इस प्रकार वे विदेशी सरकार की आँखों में धूल झोंककर कलकत्ते सकुशल पहुँच गये, पुलिस को कतई हवा तक नहीं लगी।

भगवती भाई कलकत्ते में सुशीला जी के यहाँ ठहरे थे कलकत्ते के एक करोड़पति छाजूराम की पुत्री को पढ़ाती थीं। एक दिन शाम को भगवती भाई ने एक तार पढ़ा-‘भाई के साथ आ रही हूँ दुर्गावती। वे तार देख परेशान ‘कौन दुर्गावती, और कौन भाई?

तार लखनऊ स्टेशन से भेजा गया था। सुशीला जी के साथ भगवती भाई कलकत्ते के स्टेशन पर पहुँचे तो भगत सिंह के साथ पत्नी दुर्गा और शिशु शचीन्द्र को देख स्तब्ध खड़े रह गये। वहीं प्लेटफार्म पर ही दुर्गा के कन्धों पर हाथ रख धीमे से स्वर में मुस्कराकर बोले- ‘मैंने सचमुच आज ही तुम्हें समझा है।’

कांग्रेस अधिवेशन के दौरान भगवती भाई एवं भगत सिंह के सम्पर्क में आये थे एक क्रान्तिकारी यतीन्द्रनाथ दास जो बम बनाने में प्रवीण थे। इस प्रकार योजनानुसार श्री दास के संचालन में आगरे में बम बनाने का कार्य तेजी से शुरू कर दिया गया। भगवती भाई सपरिवार लाहौर रवाना कर दिये गये और भगत सिंह ने आगरे के लिए प्रस्थान कर दिया।

कुछ दिनों के पश्चात् क्रान्तिकारियों का केन्द्र लाहौर से हटकर दिल्ली आ गया और यहीं बम फैक्टरी की स्थापना कर कार्य प्रारम्भ किया गया। अचानक इस फैक्टरी का सुराग लग गया और पुलिस ने बड़े पैमाने पर घर-पकड़ शुरू कर दी।

भगवती भाई यहाँ से कलकत्ते रवाना हो गये और यशपाल ने भूमिगत होकर रोहतक में वैद्य लेखराम के यहाँ रहकर बम की योजना पर सक्रिय कार्य करने में सफलता प्राप्त कर ली। भगवती भाई ने कलकत्ते में बम बनाने में सिद्धहस्त लोगों से सम्पर्क किया।

भगवती भाई ने कानपुर पहुँचकर गणेश शंकर विद्यार्थी से सम्पर्क बढ़ाने की चेष्टा में सफलता प्राप्त कर ली जिससे चन्द्रशेखर के सान्निध्य से तीव्रता से कार्य किया जा सके। आजाद ने जब विद्यार्थी जी से सम्पर्क किया तो भगवती वोहरा के मन को बड़ी पीड़ा हुई। ज्ञात हुआ आजाद उनसे मिलने के इच्छुक नहीं।

वे न कोई सहायता चाहते हैं न उनका मिलना दल के लिए उचित समझते हैं। भगवती भाई का हृदय अशान्त हो उठा। अपने सर्वस्व लुटाने के पश्चात् इतनी बड़ी उपेक्षा को सहन करना एक साधारण व्यक्ति के बूते की बात न थी।

फिर भी संयम और धैर्य से विद्यार्थी जी से उन्होंने केवल नम्रता से उत्तर दिया- ‘कोई बात नहीं, आजाद जी का सन्देह कल दूर हो जायेगा जब वायसराय की गाड़ी बम से उड़ा दी जायेगी। उस स्थिति में पुलिस गिरफ्तारियाँ प्रारम्भ कर देगी। अतः वे सावधान रहें, अधिक क्या बतलाऊँ?”

विद्यार्थी जी ने हतप्रभ मुद्रा में समझाया- ’24 तारीख को वायसराय दिल्ली पहुँचकर ब्रिटिश सरकार की नीति में सुधार की घोषणा करनेवाले हैं। भारत के लिए कांग्रेस के किये गये प्रयत्नों पर पानी फिर जायेगा अगर बम विस्फोट हुआ।

भगवती भाई परिचित हो चुके थे कि यह सब जयचन्द्र की शैतानी चाल का ही एक हिस्सा है किन्तु आजाद का सम्पर्क आवश्यक था इसलिए विद्यार्थी जी के सुझाव की अवहेलना उचित नहीं थी। वायसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने की योजना कुछ समय के लिए स्थगित करना ही पड़ा।

इसी समय दिल्ली के संगठनकर्ता श्री कैलाशपति से भगवती भाई का मिलन हुआ। वह शुरू में डाकखाने का कर्मचारी था। दल के लिए धन चोरी के आरोप में नौकरी छोड़नी पड़ी और फरार होकर दल में साहसिक कार्य कुछ दिन किये। नवम्बर, 1928 के दूसरे सप्ताह में एक दिन कैलाशपति के सहयोग से भगवती भाई चन्द्रशेखर जी के सम्मुख थे।

उस समय साथ में यशपाल भी थे। इस भेंट से आजाद ने प्रसन्न मुद्रा में कहा था- ‘मैंने तुमसे मिलने के लिए इनकार किया, इसे बुरा न मानना। सभी बातें स्पष्ट तौर पर किसी माध्यम से मुझे मिलती हैं, व्यक्तिगत जानकारी तमाम बातों की तो नहीं होती।

जैसा मुझे समझाया जाता, मेरी विचारधारा वहीं तक केन्द्रित रहती है। पिछली बातें भूल नये सिरे से काम करो, मेरा अविश्वास टूट गया है। यही कैलाशपति आगे चलकर क्रान्तिकारी मुकदमों के दौरान पुलिस मुखबिर बन गया।

इसी प्रकार एक अन्य व्यक्ति हंसराज ‘वायरलेस’ से भगवती भाई का परिचय हुआ जिसने उन्हें प्रभावित किया था। उसने बताया था कि वह ऐसा यन्त्र बनाना जानता है जिसकी सहायता से बैटरी के निकट एक आदमी का पास बैठना विस्फोट करते समय आवश्यक नहीं है।

यन्त्र में शीशा लगा होगा, यह यन्त्र दिल्ली के मकान में रखे यन्त्र में तमाम गतिविधियों को आइने द्वारा बेतार की तरह प्रतिबिम्ब प्रेषित करता रहेगा। दिल्ली बैठे-बैठे वायसराय की गाड़ी के गुजरने की प्रक्रिया प्रतिबिम्ब अपने यन्त्र में देख सकेंगे और इस प्रकार वहीं से बटन दबाकर गाड़ी उड़ा सकेंगे।

भगवती भाई उसके पीछे-पीछे घूमते रहे। उसने नाना प्रकार की बातें बनाई और काफी समय खराब कराया, धन की बर्बादी भी करायी। वह बातूनी व्यक्ति कहता कि वायरलेस यन्त्र वही बनाना जानता है सभी जानते हैं। यदि इसका उपयोग गाड़ी उड़ाने में किया गया तो वह पकड़ा जायेगा।

इसलिए इसके स्थान पर वह एक गैस तैयार कर बल्ब में भर देगा, बल्ब तोड़ने पर गैस वाष्प बनकर चारों ओर फैलेगी, गैस धारक अपनी जेब में रखे गैस अवरोधक से प्राण की रक्षा कर सकेगा। यह गैस पल भर में 500 गज की दूरी तय कर सकती है।

लोगों को शेखचिल्लीपने की बातें असम्भव लगीं-उसे गोली का निशाना दिया गया होता अगर वह दल का सदस्य होता। भगवती भाई को जानकारी मिली कि वायसराय दिसम्बर के तीसरे सप्ताह

कोल्हापुर जा रहे हैं। समय को कार्य में परिणत करना बुद्धिमानी समझ योजना तैयार की गयी। आजाद से दल की अनुमति 23 तारीख को प्राप्त हो गयी। भगवती भाई और यशपाल ने तार वगैरह की खरीदकर ली चूँकि हंसराज ने समय पर लायलपुर से इन्द्रपाल को कहला भेजा था कि इस समय व्यवस्था नहीं कर पाया, अपनी प्रणाली से कार्य सम्पन्न कर लो।

साइकिल और दूसरा ‘भारी सामान ख्यालीराम गुप्त के मकान पर भिजवा दी गयी। घटना स्थल चुना गया ‘कौरव-पांडव’ किले के समीप दिल्ली से 4 मील की दूरी पर। यहाँ लाइन पर पुल भी है और घुमाव भी एवं गहरा ढलान भी अधिक है।

भगवती भाई साढ़े आठ बजे रात को आजाद को आवश्यक कागजात और मोहरें दे आये। गाड़े हुए बमों को तार से जोड़ दिया, यशपाल और भागराम ने अपने कठिन एवं साहसपूर्ण चतुराई के साथ उसके बाद प्रतीक्षा के लिए एक खंडहर में बैठना आवश्यक था। सर्दी में कड़ाके की तेज बयार के झोंके शरीर को

छेद रहे थे। वर्षा की बूँदें थोड़ी देर पूर्व वातावरण को अशान्त कर बैठी थीं। भगवती भाई गाजियाबाद के स्टेशन पर बड़ी बेसब्री से दोनों की प्रतीक्षा में आँखें बिछाये थे क्योंकि ट्रेन का समय बीत गया था। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

कहीं दोनों गाड़ी के साथ शहीद तो नहीं हो गये। अपशकुनी विचार भगवती के मस्तिष्क में घूम रहे थे। कभी वेटिंग रूम में अखबार पलटने लगते, कभी प्लेटफार्म पर टहलने लगते । सहसा भागराम और यशपाल दूर से मुँह लटकाये आते नजर आये। भगवती को संकेत द्वारा यशपाल ने समझाया- ‘कुछ’ नहीं विस्फोट तो हुआ जोर से परिणाम कुछ नहीं निकला।’ हुआ,

भागराम को लाहौर के लिए रवाना कर दिया और यशपाल के साथ भगवती मुरादाबाद वाली गाड़ी की बर्थ पर मौन लेटने का उपक्रम किया जैसे सो रहे हों। मुरादाबाद रेलवे स्टेशन पर गाड़ी पहुँची-अखबारवाले चीखकर पर्चा बेच रहे थे- ‘लाट साहब की गाड़ी के नीचे बम चलाया गया, रेल की पटरी उड़ गयी, एक आदमी मारा गया!’ यशपाल और भगवती भाई की आँखों में चमक कौंधने लगी।

अखबार विस्तार से पढ़ने पर ज्ञात हुआ, विस्फोट खाना खाने के डिब्बे त हुआ, रसोइया मारा गया। वायसराय जिस डिब्बे में थे वह आगे निकल चुका था। नयी दिल्ली गाड़ी जब पहुँची तो त्रिपालों से ढक दिया गया जिससे जनता पर निराशाजनक असर न पड़े। गाड़ी का बुरा हाल था।

भगवती भाई को तब जानकारी मिली कि यदि यशपाल बटन इंजिन के निकट दबाते तो पूरी ट्रेन पटरी पर से उड़ जाती। कांग्रेस अधिवेशन में एकत्रित भीड़ एवं जनसमुदाय ने प्रसन्नता भरे स्वर से क्रान्तिकारियों के कार्य पर खुशी मनायी जबकि यशपाल जी के शब्दों में अपने विचार सिंहावलोकन के पृष्ठ 140 पर व्यक्त किये हैं

कांग्रेस अधिवेशन के प्रारम्भ में गांधी जी ने वायसराय पर आक्रमण करने वालों की निन्दा, वायसराय के प्रति सहानुभूति और उनकी प्राणरक्षा के लिए भगवान को धन्यवाद देते हुए स्वयं प्रस्ताव उपस्थित किया। उन पर आक्रमण करनेवाले लोगों को कायर, उनके कार्य को जघन्य अपराध करार देते हुए लोगों से प्रार्थना और अनुरोध किया गया कि प्रस्ताव पर बहस या विवाद के बगैर उसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया जाये।’

दिल्ली में यशपाल जी ने आजाद जी से सम्पर्क किया तो ये बड़ी क्रोधित मुद्रा में बोलते गये। यशपाल ने अपनी गलती स्वीकार कर उनके सामने आत्म-समर्पण किया। आजाद ने उन्हें क्षमा कर दिया और इतना ही नहीं यशपाल के साथ वे भगवती भाई के पास लखनऊ आ गये।

गांधी जी ने अपने साप्ताहिक ‘यंग इंडिया’ में ‘Cult of the Bomb’ (बम का मार्ग) शीर्षक से लेख प्रकाशित किया जिसमें क्रान्तिकारियों की कड़ी आलोचना ही नहीं, काफी कीचड़ उछाली गयी। भगवती भाई ने उस लेख का उत्तर देना आवश्यक समझकर ‘बम का दर्शन’ लिखवाया जिससे गांधी जी के द्वारा जनता में फैलाये भ्रम को दूर किया जा सके।

आजाद ने सही कदम समझकर उसका प्रकाशन प्रबन्ध कानपुर में करा दिया क्योंकि अन्य स्थान पर यह सम्भव न था। उनकी घोषणा का शीर्षक था ‘Philosophy of the Bomb’ (बम का दर्शन)। यह घोषणा अंग्रेजी में लिखी गयी थी जिसका संक्षिप्त आशय इस प्रकार था

‘क्रान्तिकारियों को हिंसात्मक होने का लांछन असत्य है। हिंसा और अहिंसा का अर्थ क्या है? हिंसा का अर्थ है शारीरिक बल द्वारा अन्याय करना क्रान्तिकारी ऐसा कभी नहीं करते। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

अहिंसा का अर्थ समझाया जाता है स्वयं कष्ट उठाकर प्रतिद्वन्द्वी का हृदय आत्मिक शक्ति द्वारा बदलना जिससे राष्ट्रीय व वैयक्तिक उद्देश्य की पूर्ति हो। क्रान्तिकारी भी अपने विश्वास के अनुरूप न्याय की माँग करते हैं, उसके लिये अनुरोध करते हैं, तर्क करते हैं।

सत्याग्रह का सीधा अर्थ है- सत्य के लिए आग्रह करना। सत्य के लिए आग्रह केवल आत्मिक बल से ही क्यों? शारीरिक बल से करना अनुचित क्यों है? क्रान्तिकारी अपने विश्वास के अनुसार सत्य, न्याय और देश की स्वतन्त्रता के लिए किसी भी उपाय की समय पर उपेक्षा करना उचित नहीं समझते।

हमारा विश्वास है कि देश की जनता की मुक्ति केवल क्रान्ति से ही सम्भव है जो न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की हिमायती । पूँजीवादी समाज समाप्त कर श्रेणीहीन समाज की स्थापना हमारा लक्ष्य है। देशी-विदेशी शोषण से जनता को मुक्त कराना और आत्मनिर्णय द्वारा जीने का अवसर देना हमारी माँग है। वे देश की जनता का सहयोग चाहते हैं।

आज कांग्रेस ‘स्वराज्य’ से अपना लक्ष्य बदलकर ‘पूर्ण स्वतन्त्रता’ घोषित करती है। गांधी जी वायसराय पर आक्रमण की निन्दा करते हैं, क्रान्तिकारियों को ‘कायर’ और उनके साहस को ‘जघन्य’ करार देकर, देश के शत्रु, विदेशियों को अपना मित्र माननेवाले और आत्मबलिदानियों को गद्दार करार दे देशवासियों की दृष्टि में उन्हें गिराना चाहते हैं, गालियाँ देते हैं।

‘गांधी जी अपने प्रेम से शत्रुओं के दिल जीतने का दावा करते हैं। क्या उन्होंने ओड्वायर, डायर, रीडिंग या इरविन आदि में से किसी के भी हृदय को जीतकर भारत का मित्र बना पाये हैं? क्या यह स्थिति ऐसी है कि वे ब्रिटिश राष्ट्र का हृदय अपने सिद्धान्त से जीत सकते हैं?

‘अहिंसा की नीति विदेशी शत्रु से समझौता करने का बहाना बन रही है जबकि क्रान्तिकारी 25 वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं। हम सुधारों के लिए व्यवस्था बदलने की माँग नहीं करते हैं। कांग्रेस के होमरूल, स्वायत्त शासन, पूर्ण उत्तरदायी शासन और औपनिवेशिक स्वराज्य की माँगें विदेशी दासता के ही नाम हैं। अहिंसात्मक संघर्ष की नीति नया आविष्कार कहा जा सकता है जिसकी सफलता प्रामाणिक नहीं है।

‘गांधी जी कहते हैं, जनता क्रान्तिकारियों को सहयोग न दे या कोई सहानुभूति उनके पक्ष में प्रकट न करे जिससे उनका भ्रम टूटे। क्रान्तिकारी नारेबाजी, जय-जयकार और शाबाशी पाने की परवाह नहीं करते। वे अपने देश को स्वाधीन करने के लिए तन, मन, धन सब कुछ लुटाकर जान की बाजी लगाते हैं।

‘अहिंसा के नाम पर खड़ी की गयी समझौता नीति को ठोकर मार दीजिये। हमारी संस्कृति और गौरव का कोई अर्थ उस समय तक नहीं होगा जब तक अहिंसा के नाम पर विदेशी दासता के सम्मुख सिर झुकाये रहेंगे। क्रान्ति चिरंजीवी हो ।

कर्त्तार सिंह, प्रधान हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन 26 जनवरी, 1930 को प्रातः जनता ने इन पर्चों को दीवारों पर पढ़ा। किसी भी प्रकार की गिरफ्तारी न होने के कारण अभी तक जनता में आशा बँधी थी और दल के प्रति उनका स्नेह भी बढ़ा था।

क्रान्तिकारियों में उत्साह जाग्रत हुआ था क्योंकि जनता ने उनके बलिदानी आचरण को अपने हृदय से स्वीकृति की छाप लगा डाली थी। अब योजना यह बनाई गयी कि अंग्रेजों के कान खड़े करने के लिए संग्रहीत की जिनके बलिदान की क्योंकि उनका त्यागमय, असेम्बली में बम फेंका जाये जिसके धमाके दल में सक्रियता आ जायेगी।

राजगुरु ने कार्य के अपना नाम प्रस्तुत किया। भगत सिंह कार्य को स्वयं करने के इच्छुक थे। कार्यकारिणी के सदस्यों सलाह निर्णय दिया कि असेम्बली बम भगत सिंह फेंकेंगे सहयोग करेंगे बटुकेश्वर दत्त राजगुरु के आग्रह पर आजाद एक पर्ची भगत सिंह को भेजी जिसमें दत्त के स्थान राजगुरु को था। भगत चले गये।

फैसला हो जाने पर भगवती भाई पत्नी दुर्गा और शचीन्द्र के साथ लाहीर से दिल्ली पहुँच गये जिससे भगत सिंह एक बार अन्तरंग हो सके। दुर्गा भाभी ने ढेर-से रसगुल्ले और सन्तरे भगत सिंह के लिए खरीदे क्योंकि दोनों ही उन्हें बहुत थे। विदा पूर्व भाभी ने भगत सिंह को रोली एवं अक्षत का स्नेहवश टीका लगाया, शचीन्द्र की आँखें लम्बे चाचा देख उस सजल हो उठी

असेम्बली में बम फेंकने के पश्चात् भगत सिंह और दत्त गिरफ्तार कर लिये गये। दोनों को पुलिस की लारी बिठा जब जेल ओर सरकारी कारवाँ मुड़ा एक ताँगे में भगवती भाई, दुर्गा भाभी और शचीन्द्र बैठे थे जिनकी नजरें एक-दूसरे परस्पर मिलीं, होंठों से स्वर निकले किन्तु व्यवहार ऐसा लोग अजनबी हों।

परन्तु शिशु शचीन्द्र इस रहस्य को क्या समझता? निकट से गुजरती लारी में भगत सिंह को वह चीख ही तो पड़ा-‘लम्बे चाचा जी!’ दुर्गा ने शिशु के मुँह को हथेली से ढाँप दिया मौन रखने लिए। लिया हृदय पत्थर रख लिया था उन्होंने

में आग की तरह फैल गयी। विदेशी सरकार दंग रह गयी, क्रान्तिकारियों को पकड़ने के लिए देश-भर की पुलिस भाग-दौड़ प्रारम्भ कर दी। भगवती भाई के भी लाहौर गयी। देशी पुलिस के स्थान पर गोरी पुलिस की सरगर्मी की गयी।

सदस्यों योजना पर धावा बोलकर साथियों को छुड़ा लिया जाये जिस पर सशस्त्र गारद का पहरा बैठा था। यशपाल ने जेल निरीक्षण किया और राय कि पहले हथियार और से सबलता प्राप्त करे, भगत सिंह चला हुआ कारतूस उसका फिलहाल मोह त्याग करना है।

उसके लिये के अन्य सदस्य की बलि देनी बुद्धिमानी है। ‘मुझे ऐसे विचारों की आशा थी। सर्वप्रथम भगत सिंह को बन्धन मुक्त कराना हमारा लक्ष्य जाये।’ भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

यशपाल बिगड़ उठे- ‘आजाद जी सिर्फ इसलिए चाहते हैं कि आपके अनुरूप फैसला देंगे, यही न? अच्छा भगत सिंह से विचार लिये जायें।’ भगत सिंह जेल सम्पर्क साधा गया, उत्तर भी चूँकि उनका परामर्श अनदेखा कर दिया गया था।

भगवती भाई जब लाहौर पहुँचते भी दुर्गा भाभी उनका मिलन सम्भव न होता। भाभी अलग मकान रहतीं। दल के फरार साथी आकर घर ठहरते, भोजन तो नित्य प्रति अपरिचित चेहरों देख पड़ोसियों की नजर में एक बदचलन महिला रूप में उभरीं।

सभी छींटाकशी करते, ‘अपना पति बाहर घूमता है, पत्नी नये-नये लोगों साथ मौज-मस्ती में मग्न दुर्गा सक्रिय इतनी कि दल लिए तन, मन, धन से पूर्णरूपेण समर्पित थीं, बदनामी किस चिड़िया कहते हैं, कभी सोचा तक नहीं

यहाँ तक कि कार्यकर्त्ता इन्द्रपाल ने दिल्ली प्रवास भगवती भाई से शिकायत की- ‘एक क्रान्तिकारी को ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि सभी लोग निन्दा करें। भगवतीचरण वोहरा का जीवन परिचय

भगवती ने सहर्ष प्रश्न किया- ‘तुमने सुना या कुछ देखा भी है?” इन्द्रपाल बोले- ‘सुना है। भगवती भाई ने नम्रतापूर्वक कहा- ‘जब सुनी बात का विश्वास करना तो मैं लोगों अपेक्षा अपनी पत्नी ही बात क्यों विश्वास करूँ? वह असाधारण ढंग रहती लोग साधारण कसौटी पर आँकते तो परिणाम निकलेंगे।

सहनशीलता का अभूतपूर्व संयमी कथोपकथन पहाड़-सा ऊँचा अन्त में रविवार जून, 1930 को भगत सिंह को छुड़ाने की योजना बनी। कुल 4-5 दिन शेष थे। यह निर्णय 27 मई, 1930 की बैठक में लिया प्रातः काल 28 को भगवती भाई ने कहा- ‘बमों दो, कम-से-कम एक परीक्षण कर लिया जाये।

आजाद बम के खोल ढलवाये जिनमें से तीन यशपाल बताया कि एक ट्रीगर पेचकश लो। यशपाल ने खोल भरने पूर्व रोगन लगाकर धूप सूखने हेतु रख दिये थे। लगभग 8-10 घंटे सूखने पश्चात् प्रयोग लाना जेल का लगाने व पेचकश के लिए साइकिल निकल मोटर ड्राइवर भगवती भाई, दुर्गा बच्चन, सुखदेवराज मदन गोपाल आदि थे।

आजाद और यशपाल के बँगला छोड़ने के उपरान्त सुखदेव को स्वतन्त्रता मिल गयी थी। स्वभाव के अनुरूप मस्तिष्क में उधेड़-बुन हुई, बमों को भर लिया जाये, बिलकुल सूख तो गये हैं। जिस बम का ट्रीगर ढीला यशपाल ने बतलाया वही उसके हाथ आ गया। भगवती भाई को भी ध्यान में उस समय यशपाल की बात न रही अतः उसी खोल को भगवती ने भर लिया।

भगवती भाई, सुखदेवराज और विश्वनाथ वैशम्पायन तीनों ही साथी साइकिलों से रावी तट की ओर बढ़े, साइकिलें घाट पर छोड़ उन्होंने जंगल के एकान्त में परीक्षण स्थल चुना। बम भगवती भाई ने निकाला और फेंकने से पूर्व पूर्वाभ्यास से ज्ञात हुआ कि उसका ट्रिगर ढीला है। वे बोले- ‘इसे रहने दो, इसका ट्रीगर ढीला लगता है।”

सुखदेव चुप कब रहनेवाले थे, उ हुए आगे आये, व्यंग्य करते हुए कहा- ‘डर लगता है, लाओ मुझे दो, मैं इसे फेंकता हूँ।’ “ऐसी बात नहीं, डरना क्या? जो मेरे लिये है वह तुम्हारे लिये भीं है। तुम पीछे हटो।’ कुटिल मुस्कान भर सुखदेव पीछे मुड़े और वैशम्पायन भी दूर हटे।

भगवती भाई ने हाथ में बम संयमित कर फेंकने के लिए बाहुओं को फैलाया ही था कि वह हथेली में ही फट गया और भगवती भाई कटे वृक्ष की तरह धराशायी हो गये। दोनों हाथ हवा में उड़ गये, चेहरे पर अनेकों घाव, शरीर खून से लथपथ, पेट से आँतें बाहर निकल पड़ीं। सुखदेव का पैर आहत हो चुका था किन्तु वह बँगले की ओर सूचना देने दौड़ा, वैशम्पायन ने भगवती भाई को सम्भाला।

आहत सुखदेवराज को बँगले पर यशपाल ने ही उतारा जो वापस आ चुके थे। जानकारी के पश्चात् मास्टर छैल बिहारी को साथ ले तत्काल टैक्सी से जंगल पहुँचकर दुर्घटना स्थल तक गये। यश को देख भगवती ने प्रश्न किया- ‘आजाद नहीं आये, काश, उन्हें भी देख लेता!’

सजल नेत्रों से यश ने उत्तर दिया- ‘वे बंगले पर लौटे ही नहीं अन्यथा जरूर ‘आते। कोई घबराने की बात नहीं, हम यहाँ खाट लाते हैं, चिन्ता न करो।’ ‘मुझे चिन्ता नहीं और न डर है। असहनीय पीड़ा को दबाते हुए अस्पष्ट शब्दों को समेट भगवती ने कहा- ‘दुख तो केवल इतना है

कि मैं भगत सिंह को छुड़ाने में सहयोग अब न कर सकूँगा। क्या यह मृत्यु दो दिन बाद नहीं हो सकती थी?” आँखें बह चलीं। उन्होंने साहस बटोर पुनः कहा- ‘भगत सिंह को छुड़ाने का यत्न रुकना नहीं चाहिए। मुझे…मेरे हाल पर छोड़ दो, व्यर्थ है मुझे बचाना।

धमाका जोर से हुआ, पुलिस को भनक लगी तो सब काम रुकेगा काश, मेरे हाथ होते तुम मुझे रिवाल्वर दे जाते और पुलिस को तब खबर भी कर देते तो कम-से-कम संघर्ष में तो मारा जाता। वे तड़पने लगे पीड़ा से ‘हाय, उफ बम का टुकड़ा गुर्दे में फँसा है।

इसलिए पेशाब शायद नहीं आ रहा थोड़ी देर उपरान्त उनकी आँखें आकाश के अँधेरे में विलीन होने लगीं, प्राण पखेरू उड़ गया और इस प्रकार एक लक्ष्यद्रष्टा मौन मानव जो जीवन भर क्रान्ति की मशाल हाथ में लिये आगे बढ़कर पीछे देखने का आदी न था 28 मई, 1930 को बड़ी खामोशी से संसार से विदा हो गया।

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