ऐसे व्यक्ति की आत्मा महान आत्मा बन जाती है
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।। गीता 9/13।।
अर्थ: हे अर्जुन! महान आत्माएं मेरी दैवीय प्रकृति के आश्रित होकर, मुझे सभी भूतों का आदि और अव्यय कारण जानकर अनन्य मन से भजती हैं।
व्याख्या: जो निरंतर इंद्रियों, मन, बुद्धि को साधता हुआ तथा अपने विकारों व वासनाओं को दूर करने में लगा रहता है, साथ ही जिसने अपने काम, क्रोध और राग-द्वेष को काबू कर लिया है, ऐसा व्यक्ति महान आत्मा कहलाता है।
फिर वह केवल मुझ परमात्मा में अपने को लीन कर देता है। अब वह परमात्मा की दैवीय प्रकृति के आश्रित हो जाता है और यह भी जान जाता है कि पूरी प्रकृति और उसके सभी भूत परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं।
अब उसका परमात्मा की प्रकृति से लगाव नहीं, बल्कि प्रकृति जिससे उत्पन्न हुई है उस मूल तत्त्व से अभिन्न लगाव हो जाता है। फिर साधक के मन में परमात्मा के अलावा अन्य कोई विचार नहीं रहता। अब तो साधक चौबीसों घंटे मन से बस परमात्मा को ही भजता रहता है।