राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक Sarsanghchalak of Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS)

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक संघ के सभी कार्यों की जिम्मेदारी निभाते हैं। संघ के सरसंघचालक (Sarsanghachalak) की पद की गणना श्री केशव बलिराम हेडगेवार जी से होती है, जिन्हें संघ के संस्थापक माना जाता है। हेडगेवार जी ने संघ को स्थापित किया था।

वर्तमान में, मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक हैं। वह संघ के छटे सरसंघचालक हैं और 21 सितंबर 2009 से इस पद पर हैं। उन्होंने संघ के स्वयंसेवी कार्यों को विस्तारित किया है और संघ की एकता को बढ़ावा देने के लिए कई उपाय अपनाए हैं। अभी तक के सभी

  1. प.पु. डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार या डॉक्टरसाहब जी (1925-1940)
  2. प. पु .माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर उपाख्य गुरूजी (1940-1973)
  3. मधुकर दत्तात्रेय देवरस (1973-1993)
  4. प्रोफ़ेसर राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया (1993-2000)
  5. कृपाहल्ली सीतारमैया सुदर्शन उपाख्य सुदर्शनजी (2000-2009)
  6. डॉ॰ मोहनराव मधुकरराव भागवत (2009 से अब तक)

परम पूजनीय सर संघचालक पू० पू० आद्य सरसंघचालक

सरसंघचालक डा० केशव बलिराम हेडगेवार सन् 1889 की 1 अप्रैल प्रतिपदा का दिन था। परम्परागत ढंग से हिन्दू घरों, में भगवा फहराया जा रहा था। ऐसा ही खुशी का अवसर इस दिन नागपुर के गरीब ब्राह्मण बलिराम पत हेडगेवार के परिवार में पाचवी संतान का जन्म हुआ था इस महज संयोग को इस बालक ने अपने कृतित्व एव व्यक्तित्व, संकल्प साधना एवं संस्कार, शुद्ध चरित्र एवं मौलिक चिंतन से यथार्थ में बदल दिया। बचपन का केशव आधुनिक भारत के निर्माण की सकेत- रेखा था जो आगे चलकर डा० केशव बलिराम हेडगेवार के रूप में यशस्वी हुआ ।

बलिराम पत का परिवार बड़ा था। माता-पिता के प्यार ने बच्चो को गरीबी का अनुभव नहीं होने दिया। अपने दोनों ज्येष्ठ पुत्रों को वेद अध्ययन के लिए प्रेरित किया। केशव का भी नाम संस्कृत पाठशाला में लिखाया।

परन्तु इस परम्परावाद पर उनके छोटे पुत्र ने प्रश्न खड़े करने का सफल कार्य किया। केशव की मानसिक सरचना असाधारण थी। उनकी कुशाग्र बुद्धि चंचलता और प्रतिभा ने उन्हे आधुनिक शिक्षा के लिए प्रवृत्त किया एवं माता-पिता ने लीक से हटकर बाद में पारिवारिक परम्परा के प्रतिकूल उनका नाम पूरे मध्यप्रांत में प्रसिद्ध नागपुर के नील सिटी स्कूल में दर्ज कराया।

दृढता, संकल्प-शक्ति एवं विवेक के आधार पर कार्य करने की प्रवृत्ति उनके जीवन में हमेशा दिखाई पड़ती रही। पहली घटना तब की है जब उनकी उम्र सिर्फ आठ वर्ष की थी। यह घटना 22 जून 1897 की है। ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के साठ साल पूरे होने पर भारत में जश्न मनाया जा रहा था।

केशव के स्कूल में भी मिठाई बांटी गई। परन्तु उन्होंने अपने हिस्से की मिठाई फेंकते हुए सहसा कहा- “लेकिन वह हमारी महारानी तो नही हैं” देशभक्ति की उपजी भावना आने वाले वर्षों में और प्रस्फुटित होने लगी। दूसरी घटना 1901 की हैं। इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के अवसर पर राजनिष्ठ लोगों द्वारा नागपुर में आकर्षक आतिशबाजी का आयोजन किया था। केशव ने बाल मित्रों को उसे देखने से रोका। उन्होने उन सबको समझाया कि ‘विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है।

महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की वीरता की गाथा घर-घर में सुनी-सुनाई जाती थी। केशव के जीवन पर भी शिवाजी की वीरता, संकल्प-शक्ति एवं राष्ट्रीय भाव का अटूट प्रभाव था। तभी नागपुर के सीताबडी के किले के ऊपर इंग्लैंड के ध्वज यूनियन जैक का फहरना उनके बाल मन को कचोटता रहता था। केशव की छोटी उम्र में ही परिपक्व बातें एवं राष्ट्रवादी आकाक्षाएं आस-पड़ोस के लोगों के लिए चौंकाने वाली बात थी।

सन् 1901 का वर्ष नागपुर और केशव दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। इस वर्ष अंग्रेजी राज के खिलाफ इस शहर में संगठित छात्र आंदोलन की शुरूआत हुई और इस कार्य की योजना एवं क्रियान्वयन केशव के द्वारा ही हुआ।

बंग विभाजन के बाद सरकारी दमनचक्र की तीव्रता पूरे देश में बढ़ती जा रही थी। बंगाल में, राजनीतिक आदोलन में विद्यार्थियों की अहम भूमिका को देखते हुए सरकार ने एक नोटिस जारी किया। यह नोटिस ‘रिस्ले सर्कुलर के नाम से प्रसिद्ध था। इस सर्कुलर का मध्य प्रांत में विरोध नागपुर से शुरू हुआ।

सन् 1907 के मध्य में विद्यालय निरीक्षक प्रतिवर्ष की भांति स्कूल का पर्यवेक्षण करने नील सिटी स्कूल आये थे। जैसे ही निरीक्षक केशव की कक्षा में गये, सभी छात्रों ने उठकर एक साथ वंदे मातरम्’ की जोरदार घोषणा से उनका स्वागत किया।

‘गुस्से से लाल-पीले होकर विद्यालय निरीक्षक प्रधानाध्यापक जनार्दन विनायक ओक के कमरे में गये और बिना बात किये अपनी टोपी लेकर सीधे चले गये। केशव के हृदय में धधकने वाली देशभक्ति की प्रखर अग्नि की तीव्रता का अनुभव उनके मित्रों, गुरुजनो तथा परिवार वालों को होने लगा था। कोलकाता के नैशनल मैडिकल स्कूल में पहुँचने के बाद तो इस अग्नि ने ज्वाला का रूप ले लिया। मैडिकल की शिक्षा पूरी करने के बाद पैसा और प्रसिद्धि का मार्ग उनके स्वागत को आतुर था, विद्यालय के प्रधानाचार्य ने तो 3000 रू० मासिक वेतन पर बर्मा में एक बड़े सरकारी अस्पताल में चिकित्साधिकारी के रूप में उन्हें भेजने की संस्तुति भी कर दी। नागपुर के टूटे-फूटे पुश्तैनी मकान के बाहर डॉ० के. बी. हेडगेवार का नया बोर्ड भी उनके भाई ने लगवा दिया। परन्तु डॉ० हेडगेवार का मन-मस्तिष्क तो उसी प्रश्न के उत्तर की खोज में अभी तक लगा था, हम बार-बार गुलाम क्यों हुए, हम क्या करें जिससे भारत फिर गुलाम न हो? यह चिरन्तन प्रश्न उन्हें चैन से नहीं बैठने देता था।

नागपुर लौटकर वे कांग्रेस में भर्ती हो गये, अपनी योग्यता तथा संगठन कुशलता के कारण उनकी गिनती प्रमुख कार्यकर्ताओं में होने लगी। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन हुआ डा० हेडगेवार उसकी व्यवस्था में लगे स्वयंसेवी दल के प्रमुख थे।

1921 के असहयोग आन्दोलन में वे एक साल के लिए जेल भी गये, वहाँ उन्होंने देखा कि अपने भाषणों में बड़े-बड़े आदशों की बात करने वाले कांग्रेसी नेता जेल में एक गुड के टुकड़े और साबुन की टिकिया के लिए कैसे लडते हैं? मुस्लिम तृष्टीकरण अनुशासनहीनता तथा निजी स्वार्थपरता जैसी कांग्रेस- चरित्र की विशेषताओं को देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया। वैचारिक मंथन तीव्र गति से चल रहा था। अन्ततः उन्होंने एक निष्कर्ष निकाला-बिना हिन्दू संगठन के भारत का उत्थान सम्भव नहीं है। भारत को अपनी मातृभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि तथा 25००० शाखा पुस्तिका मोक्षभूमि मानने वाला हिन्दू समाज ही इस देश का एकमेव राष्ट्रीय समाज है। उसको संगठित करने से ही भारत को चिरस्थाई स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है।

जेल से बाहर आने के बाद उनके मन में एक नये संगठन की योजना कार्यरूप ले रही थी। और इसी के निष्कर्ष स्वरूप 1925 की विजयदशमी के शुभ अवसर पर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर दी। प्रारम्भ में उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, उनको उपदेश और सुझाव देने वाले तो बहुत थे, पर सहयोग करने वाले बहुत कम। ” हिन्दू समाज का संगठन जीवित मेंढकों को तौलने के समान असम्भव है, चार हिन्दू तो तब ही एक दिशा में चलते हैं जब किसी पाँचवें की अर्थी उनके कन्धे पर होती है”.. आदि आते उन्हें बहुत सुननी पड़ती थी। डा० हेडगेवार की अविश्रान्त साधना के फलस्वरूप संघ का कार्य तेजी से बढ़ने लगा, युवकों की टोलियाँ उनके घर पर जमी रहती थी।

21 जुलाई 1930 को यवतमाल में अपने जत्थे के साथ जंगल सत्याग्रह में उन्होंने भाग लिया तथा नौ मास के कारावास की सजा उन्होंने अकोला जेल में रहकर पूरी की। डा० हेडगेवार के मन को सन्तोष कहाँ था? उनकी आँखों में तो भारतमाता को गुलामी की जजीरो से मुक्त कराके उसे फिर से विश्व गुरु के सर्वोच्च सिहासन पर विराजमान करने का स्वप्न तैर रहा था। दिन -रात वे इसी कार्य में लगे थे, आँखों में नींद और शरीर के विश्राम से से कोसों दूर थे।

1934 में वर्धा में संघ का शिविर लगा। महात्मा गांधी भी उस समय वर्धा में ही श्री जमनालाल बजाज के बंगले पर ठहरे हुए थे, शिविर के बारे में चर्चा होने पर गांधी जी ने उसे देखने की इच्छा व्यक्त की। उनके मन में संघ के बारे में कोई बहुत अच्छी धारणा नहीं थी, परन्तु शिविर में आकर वे चमत्कृत हो गये। छुआछूत और भेदभाव मिटाने को जो बात वे वर्षो से बोल रहे थे, संघ-शिविर में वह उन्हें व्यवहार में दिखायी दी।

एक ओर संघ का कार्य और उसके विचारों की स्वीकार्यता समाज में निरन्तर बढ़ रही थी तो दूसरी ओर डाक्टर जी का शरीर धीरे-धीरे शिथिल होता चला जा रहा था। बीमारी और बेहोशी की अवस्था में भी वे बड़बड़ाते रहते थे। “देखो, 1940 का वर्ष भी बीता जा रहा है, हमारा कार्य शीघ्र बढना चाहिए ।

1940 में नागपुर तथा पुणे में संघ के चालीस दिवसीय ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण वर्ग (संघ शिक्षा वर्ग) लगे, पुणे के वर्ग में कुछ दिन रहने के बाद वे आग्रह पूर्वक नागपुर आये। भीषण गर्मी के कारण उनका स्वास्थ्य लागातार गिर रहा था। पर फिर भी के स्वयंसेवकों से मिलते थे। नागपुर के इस वर्ग में पहली बार भारत के प्रत्येक प्रान्त का प्रतिनिधित्व हुआ था । स्वयसेवकों के रूप में मानो सम्पूर्ण भारत का छोटा प्रतिरूप वहाँ उपस्थित था, डाक्टर जी को भी इस बात का बहुत सन्तोष था।

स्वास्थ्य की अत्याधिक खराब के कारण डाक्टरों ने अन्तिम उपाय के रूप में रीढ़ से पानी निकालने के लिए लंबर- पंचर करने का निर्णय लिया। लेकिन फिर भी बुखार, रक्तचाप आदि में कोई कमी नहीं हुई। अन्ततः 21 जून, 1940 प्रातः 9.27 पर हिन्दू राष्ट्र के मन्त्रदृष्टा स्वयसेवकों के आराध्य, संघ संस्थापक पू० डा० केशव बलिराम हेडगेवार ने अपनी नश्वर काया छोड़ दी।

द्वितीय प०पू० सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवरकर (श्री गुरू जी)

19 फरवरी, 1906 सोमवार को प्रातः 430 पर माता श्रीमती लक्ष्मीबाई तथा पिता श्री सदाशिवराव की गोद इस बालक के जन्म से धन्य हुई। बालक का नाम ‘माधव’ रखा गया। परन्तु माँ प्यार से ‘मधु’ कहकर ही बुलाती थी। माधव अपने अपने माता-पिता की संतानों में से एक मात्र जीवित संतान थे अतः उनकी आशा अपेक्षाएं इन्ही पर केन्द्रित थी।

जन्म से ही तीव्र वृद्धि के धनी माधव की बुद्धिमता के अनेक किस्से उनके विद्यालय में विख्यात थे। गणित के सवाल हल करना उनके लिए खेल था। इधर अध्यापक ने श्यामपट पर प्रश्न लिखा उधर माधव ने खड़े होकर उत्तर बता दिया। एक बार खड़वा के हाईस्कूल में गणित का एक प्रश्न हल करने में सभी छात्र व अध्यापक जब असमर्थ रहे तो उन्होंने माधव को बुलाया उन्होंने वह प्रश्न आसानी से हल कर दिया। जब प्रधानाचार्य को इस घटना का पता लगा तो उन्होंने माधव को पूरे विद्यालय के सामने पुरस्कृत किया।

जब उच्च शिक्षा हेतु जब वे काशी विश्वविद्यालय पहुँचे तो उनकी अध्ययनशीलता की धाक वहाँ भी फैल गयी। एम.एस-सी. पूर्ण होने के पश्चात् वे शोध कार्य हेतु मद्रास गये। उधर पिताजी भी रिटायर हो गये अतः खर्च की समस्या उत्पन्न हुई इन सभी परिस्थितियों के कारण माधव ने अध्ययन छोड़कर काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक का कार्य प्रारम्भ कर दिया। छात्रों के प्रति उनका असीम प्रेम तथा पढ़ाने की अभिवन शैली के कारण छात्र उनसे ही पढ़ना पसन्द करते थे।

नागपुर के एक छात्र प्रभारक बलवंत दाणी डा० हेडगेवार की योजना से वहां पर बी. ए. कर रहे थे तथा संघ की शाखा भी लगाते थे। गुरूजी भी कभी-कभी उस शाखा में जाने लगे इससे संघ के विचारों के प्रति उनका आकर्षण एवं प्रेम धीरे-धीरे बढ़ने लगा, इसी दौरान काशी की शाखा पर डा० हेडगेवार का आगमन हुआ, डॉ० जी एवं श्री गुरु जी प्रथम भेंट में ही एक दूसरे से बहुत प्रभावित हुए। विश्वविद्यालय की छुट्टी के दिनों में श्री गुरू जी नागपुर जाते तो डॉ० जी के साथ बैठकर घंटों विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहते। दोनों महापुरूष एक दूसरे को परख रहे थे। तीन वर्ष काशी में पढ़ाने के पश्चात् अपने माता-पिता के आग्रह पर वे नागपुर लौट आये तथा एल. एल. बी. की परीक्षा पास की और वकालत शुरू की, अन्त में धोखाधड़ी पर आधारित वकालत के व्यवसाय को भी छोड़ दिया। इन्ही दिनों नागपुर के स्वामी रामकृष्ण मिशन आश्रम में उनका जाना भी शुरू हो गया था।

सन् 1936 में दीपावली से पूर्व एक दिन श्री गुरु जी अचानक घर से गायब हो गये, वे स्वामी विवेकानन्द जी के गुरू भाई स्वामी अखण्डानन्द जी के सारगाछी (बंगाल) आश्रम जा पहुँचे जहाँ 13 जनवरी 1937 को मकर संक्रान्ति के दिन उन्हें दीक्षा प्रदान की गई पर साथ ही यह आशीर्वाद भी दिया कि तुम्हें हिमालय की कन्दराओं में तपस्या नहीं करनी, अपितु समाज सेवा का महान कार्य तुम्हारे द्वारा होना है।

7 फरवरी 1936 को स्वामी अखण्डानंद जी का शरीर शांत होने के पश्चात् पुन नागपुर लौट आए उनके लौट आने पर सर्वाधिक प्रसन्नता डॉ० जी को हुई। प्रारम्भ में तो श्री गुरू जी ने डा० जी को सामान्य व्यक्ति ही समझा परन्तु धीरे-धीरे डॉ० जी व श्री गुरू जी दो शरीर एक प्राण के रूप में कार्य करने लगे। 1938 में नागपुर के संघ शिक्षा वर्ग में सर्वाधिकारी का दायित्व उन्हें सौंपा गया। सन् 1939 में उन्हें सरकार्यवाहक का दायित्व दिया गया और सार देश में उनका प्रवाज प्रारम्भ हो गया।

डा० जी का स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था 27 जून 1940 को डॉ0 जी के स्वर्गवास के पश्चात् सरसंघचालक का गुरुतर दायित्व श्री गुरु जी के कंधो पर आ गया। 3 जुलाई 1940 को रेशीमबाग संघस्थान पर आयोजित सार्वजनिक श्रद्धांजलि सभा में नागपुर प्राप्त संघचालक श्री बाबासाहब पाध्ये ने श्री गुरू जी को सरसंघचालक मनोनीत करने वाला डॉ. जी का निर्णय पढ़कर सुनाया और फिर शुरू हुई श्री गुरू जी की अखण्ड यात्रा सम्पूर्ण भारतवर्ष का वे वर्ष में 2 बार भ्रमण करते थे। देश का कोई प्रान्त जिला या महत्वपूर्ण स्थान ऐसा नहीं था जहाँ श्री संघकार्य के लिये न गये हों। 30 जनवरी 1948 को गाँधी जी गुरु जी हत्या के पश्चात् 9 फरवरी 1948 को श्री गुरु जी को बन्दी बनाया गया। 4 फरवरी 1948 को संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 13 जुलाई 1948 को बैतूल जेल से मुक्त होने के बाद श्री गुरू जी ने सम्पूर्ण भारत का प्रवास फिर से प्रारम्भ कर दिया। भारत माँ की करोडो दुखी दरिद्र एवं उपेक्षित संतानों के लिए उनके मन में आप व्यथा व पीड़ा थी उनकी सेवा के लिए उन्होंने सैकड़ो कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया। 33 वर्ष के कार्यकाल में उन्होंने लगभग 70 बार सम्पूर्ण देश का भ्रमण किया और 50,000 से भी अधिक पत्र अपने हाथ से लिखे।

सन् 1969-70 में उनके सीने में बायी और एक गाठ उभर आई जिसके कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा परन्तु प्रवास, बैठक, बौद्धिका निरन्तर चलता रहा। 5 जून 1963 को प्रातः ही उन्हें अपने महा प्रयाण को पूर्वाभास हो गया था उन्हों अपने निजि सचिव डॉ० आबाजी थत्ते से कहा कि आज घंटी बज रही है लगता बुलावा जाने वाला है, पूरा दिन ऐसे ही बीता रात्रि 9.05 बजे श्री गुरु जी ने दीर्घ श्वास लेकर मन ही मन अपने गुरू स्वामी अखण्डानन्द तथा अपने मार्गदर्शक डॉ० जी का पावन स्मरण किया और “भारत माता की जय” बोलते हुए देह त्याग दी।

तृतीय प०पू० सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस

श्री मधुकर दत्तात्रेय (बालासाहब) देवरस का जन्म 11 दिसम्बर, 1914 का नागपुर के एक मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। आपके पिता श्री दत्तात्रेय देवरस एक सामान्य सरकारी कर्मचारी थे तथा नागपुर के इतवारी मौहल्ले में रहते थे, बालासाहब के चार अन्य भाई तथा चार बहनें भी थीं। वैसे तो यह परिवार मूलतः आंध्र प्रदेश से आकर नागपुर में बसा था।खेलकूद में बालासाहब बचपन से ही बहुत निपुण थे, कबडडी में तो मानो उनके प्राण बसते थे, इस कारण सब उनसे मित्रता करना चाहते थे। 1927 में उन्होंने संघ शाखा पर जाना प्रारम्भ किया. उनकी प्रतिभा को देखकर डॉ० हेडगेवार ने उन्हें शाखा के कुशपथक में शामिल कर दिया। विशेष प्रतिभाशाली स्वयंसेवकों को कुशपथक में रखकर डा० जी स्वयं उन पर विशेष ध्यान दिया करते थे, धीरे-धीरे उन्हें गटनायक, गणशिक्षक, मुख्य शिक्षक आदि दायित्व मिले। बालासाहब ने सब दायित्वों को कुशलतापूर्वक संभाला, खेलकूद के साथ-साथ पढ़ाई में भी पर्याप्त रूचि एवं कुशाग्र बुद्धि होने के कारण उन्होंने सभी परीक्षाएँ सदैव प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण की।

बालासाहब शुरू से ही बहुत कान्तिकारी तथा खुले विचारों के थे उस समय छूआछूत, जातिभेद, खानपान में विभिन्न प्रकार के बन्धन आदि का सामान्य रूप से प्रचलन था पर बालासाहब इन कुरीतियों एवं रूढ़ियों के घोर विरोधी थे। अतः सर्वप्रथम उन्होंने अपने घर का वातावरण ठीक किया।

बी०ए० तथा फिर एल0एल0बी0 करने के बाद उन्होंने डाक्टर जी के परामर्श पर नागपुर के “अनाथ विद्यार्थी वसतीगृह’ में दो वर्ष तक अध्यापन कार्य किया, इसी समय आपको नागपुर के नगर कार्यवाही का दायित्व भी दिया गया। 1939 आपने प्रचारक बनने का निश्चिय किया तथा डाक्टर जी ने आपको कोलकाता भेजा, परन्तु 1940 में डाक्टर जी के स्वर्गवास के कारण आपको पुनः नागपुर बुला लिया गया, तब से नागपुर ही आपकी गतिविधियों का केन्द्र रहा।

नगर कार्यवाह के नाते नागपुर के कार्य को पूरे देश में आदर्श बनाने का महत्वपूर्ण दायित्व उन पर आया। संघ का केन्द्र होने के कारण बाहर से आने वाले सब लोग नागपुर से प्रेरणा लेकर जाएँ. इस कल्पना के साथ श्री बालासाहब ने काम संभाला। बिल्कुल प्रारम्भ से ही संघ तथा डाक्टर जी से जुड़े रहने के कारण श्री बालासाहब का संघ की कार्यपद्धति तथा कार्यक्रमों के कमिक विकास में बहुत योगदान रहा है। संघ का गणवेश, शाखा तथा संघ शिक्षा वर्गों के शारीरिक / बौद्धिक कार्यक्रम एवं उनमें समय समय पर हुए आवश्यक परिवर्तनों के वे प्रत्यक्ष साक्षी रहे. गणगीत तथा समूहगान की पद्धति बालासाहब ने ही शुरू की।

1964 में बालासाहब को सरकार्यवाहक का दायित्व मिला तथा 1973 में पू० श्री गुरूजी के स्वर्गवास के बाद वे तृतीय सरसंघचालक बने। नागपुर केन्द्र की गतिविधियों में अत्यधिक सलग्नता के कारण उनका नाम देश भर में अल्पज्ञात ही था, अतः अनेक लोग इस चिन्ता से ग्रस्त हो गये कि अब संघ कार्य कैसे चलेगा? श्री गुरूजी तो बहुत विद्वान एवं महान आध्यात्मिक पुरूष थे परन्तु श्री बालासाहब तो साधारण कार्यकर्ता है, ये इतने बड़े संगठन को कैसे संभाल पायेंगे? परन्तु जैसे-जैसे श्री बालासाहब का सघन प्रवास शुरू हुआ, सबकी धारणाएँ बदल गयीं।

04 जुलाई, 1974 को संघ पर प्रतिबन्ध की घोषणा हो गयी. श्री बालासाहब संघ शिक्षा वर्गों के प्रवास समाप्त कर नागपुर लौटे ही थे कि उन्हें बन्दी बनाकर यरवदा (पूर्ण) कारागृह में ठूस दिया। शेष सभी प्रमुख कार्यकर्ता एवं प्रचारक भूमिगत हो गये तथा एक-दो अपवाद छोड़कर अन्त तक पकड़े नहीं गये।

1974 से 1977 तक की आपातकालीन रात्रि बीतने के बाद संघ के स्वयंसेवकों द्वारा समाज-जीवन के विविध क्षेत्रों में चलाये जाने वाले संगठनों को जो अखिल भारतीय स्वरूप ख्याति एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हुई उसके पीछे श्री बालासाहब का सुयोग्य मार्गदर्शन तथा योजनाबद्ध रीति से अनेक नये एवं युवा प्रचारक कार्यकर्ताओं को इन क्षेत्रों में भेजना, यही प्रमुख कारण हैं।

1973 से 1994 तक 21 वर्षो में सरसंघचालक के रूप में आपने संघ को अनेक नये विचार दिय, हिन्दुत्व पर आने वाली किसी भी चुनौती को उन्होंने अस्वीकार नहीं किया। 1983 में तामिलनाडु के भीपाक्षीपुरम ग्राम में जब कुछ हिन्दुओं ने सामूहिक रूप से मुस्लिम पथ स्वीकार कर लिया तो सारे देश में इसकी आलोचना हुई। पर श्री बालासाहब ने इस चुनौती को स्वीकार कर किया तथा धर्मान्तरण के इस कुचक्र को तोड़ने के लिए सार्थक पहल की। विभिन्न सामाजिक समस्याओं पर व्यक्त किये गये श्री बालासाहब के क्रान्तिकारी विचारों ने सदैव हिन्दू समाज को एक उचित दिशा दी है। “यदि अस्पृश्यता पाप नहीं तो कुछ भी पाप नहीं है, जातिभेद तथा पुरानी कालबाह्य रूढ़ियों को छोड़ देना ही उचित है। समाज के निर्धन और निर्बल वर्ग के प्रति अनुराग का यह दृष्टिकोण व्यक्तिगत रूप से उनके जीवन में गहराई से स्थापित था ।

परिवार में जब सम्पत्ति का बंटवारा हुआ तो बालासाहब और भाऊराव के हिस्से में चिखली (नागपुर) तथा कारंजा (म0प्र0) की कुछ खेती वाली भूमि आई । चिखली की भूमि, मकान, हल-बैल आदि तो उन्होंने उसे जोतने-बोने वाले नौकर ‘चिन्धबाजी’ को ही नाममात्र के मूल्य पर दे दी। उसे यह भी छूट दी कि वह जब चाहे धीरे-धीरे अपनी सुविधानुसार इनका मूल्य चुका दे। जबकि कारंजा की भूमि को बेचकर उसका समस्त पैसा डाक्टर हेडगेवार स्मारक समिति को दे दिया गया।

बालासाहब प्रारम्भ से ही मधुमेह रोग से पीडित रहे, फिर भी 21 वर्ष तक वे एक मौन तपस्वी की भाँति पूरे देश में भ्रमण करके सब कार्यकर्ताओं को उचित मार्गदर्शन देते रहे। परन्तु जब उन्हें यह अनुभव होने लगा कि स्वास्थ्य तथा आयु सम्बन्धी कठिनाइयों के कारण नियमित प्रवास करना अब कठिन है। तो सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श कर नयी परम्परा स्थापित करते हुए 11 मार्च, 1994 को अ.भा. प्रतिनिध सभा के सम्मुख प्रो0 राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ को नूतन सरसंघचालक घोषित कर दिया।

सरसंघचालक के दायित्व से मुक्त होने के बाद भी वे सक्रिय बने रहे, यथासम्भव बैठकों, शिविरों, कार्यक्रमों आदि में जाकर वे अपने बहूमूल्य परामर्श से सबको लाभान्वित करते रहे। बालासाहब का शरीर तो वस्तुतः रोगो का घर ही था, चिकित्सक भी यह देखकर हैरान रहते थे कि इतने रोगों के बाद भी वे चल कैसे रहे हैं? धीरे-धीरे श्री बालासाहब को लगने लगा कि अब वह शरीर लम्बे समय तक साथ देने वाला नहीं है, उन्होंने इसकी तैयारी भी शुरू कर दी।

25, 26 मई को स्वास्थ्य की अत्यधिक खराबी के कारण उन्हें पूणे के दीनदयाल चिकित्सालय और फिर अत्याधुनिक रूबी चिकित्सालय में भर्ती कराया गया। पर स्वास्थ्य में कुछ सुधार नहीं हुआ कुछ दिन तक कृत्रिम श्वास तथा अन्य उपकरणों ने सहयोग दिया पर भी कब तक साथ देते? अन्ततः 17 जून. 1996 को रात्रि 8.10 पर श्री बालासाहब ने अपने सभी मित्रों, शुभचिन्तकों, सम्बन्धियों, स्वयंसेवकों तथा हिन्दुत्व प्रेमियों से विदा लेने हुए शरीर छोड़ दिया।

चतुर्थ प० पू० सरसंघचालक प्रो0 राजेन्द्र सिंह जी (रज्जू भैय्या)

वह मार्च 94 की ग्यारह तारीख थी और विश्व के सबसे बड़े स्वयं सेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्यालय नागपुर में रेशीम बाग स्थित डा० हेडगेवार भवन के विशाल सभा मण्डप में संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक का उद्घाटन सत्र । तभी बायीं ओर कुछ हलचल हुई और सबने देखा कि चार-छह स्वयंसेवक एक पहिये वाली कुर्सी पर सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस को मण्डप में लाये। ध्वनिवर्धक उनके सामने रखा गया और धीरे-धीरे उन्होंने बोलना प्रारम्भ किया। “पूजनीय श्री गुरू जी ने 1973 में मुझे यह भार सौंपा था, आप सभी के सहयोग से मैने इसे अब तक निभाया है, पर स्वास्थ्य की खराबी के कारण अब मेरे लिए प्रवास करना सम्भव नही है। अतः मैने सभी वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श के बाद यह निर्णय लिया है कि आज से हम सबके सुपरिचित प्रो0 राजेन्द्र सिंह सरसंघचालक का दायित्व वहन करेंगे।

प्रो0 राजेन्द्र सिंह का जन्म 29 जनवरी 1922 को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जनपद में स्थित ग्राम बनैल में हुआ। आपके पिता कुँवर बलवीर सिंह अंग्रेज शासन में बने पहले भारतीय मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जीनियर) थे। रज्जू भैय्या के अन्य दो भाई श्री यतीन्द्र सिंह भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई०ए०एस०) में राजस्थान पब्लिक सर्विस कमिशन के अध्यक्ष रहे तथा श्री विजेन्द्र सिंह उ0प्र0 में सिचाई विभाग के मुख्य अभियन्ता तथा विश्व बैंक की सैन्ट्रल वाटर पावर कमिशन के अध्यक्ष पद से सेवा निवृत्त हुए। प्रारम्भिक शिक्षा मसूरी, रूडकी तथा उन्नाव में पूर्ण करने के बाद उन्होंने प्रयास विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर भौतिक विज्ञान में एम०एस०सी० की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और फिर प्रयास विश्वविद्यालय में ही अध्यापन कार्य करना स्वीकार किया।

लम्बे समय तक प्रयाग से जुड़े रहने के कारण रज्जू भैय्या का सम्पर्क समाज जीवन के अनेक प्रमुख लोगों से आया, इनमें सत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, कांग्रेस के राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन व लालबहादुर शास्त्री प्रमुख थे। 1942 के “भारत छोड़ो आन्दोलन” में रज्जू भैय्या ने सक्रियता से भाग लिया, पर अपनी दूरगामी सोच तथा योजकता के अभाव के कारण वह आन्दोलन बुरी तरह विफल हुआ। कांग्रेस जैसी बड़ी संख्या की दिशाहीनता देखकर उनका मन इस ओर से खट्टा हो गया, उनका एम. एस.सी. का अन्तिम वर्ष भी चल रहा था. अतः उन्होने स्वयं को कांग्रेस की गतिविधियों से अलग कर लिया। इसी दौरान उनका परिचय संघ से हुआ, उनके घर के निकट रहने वाले एक छात्र दाताराम तथा उनके सहपाटी श्यामनारायण श्रीवास्तव के माध्यम से वे संघ के तत्कालीन विभाग प्रचारक श्री बापूराव के निकट सम्पर्क में आये ।

रज्जू भैय्या ने अपने घर से आधा कि०मी० दूर लगने वाली भारद्वाज आश्रम की सायं शाखा में अपने मौहल्ले के मित्रों के साथ जाना प्रारम्भ कर दिया। प्राध्यापक बन जाने के बाद भी यह कम निरन्तर जारी रहा। रज्जू भैय्या की इस सकियता से उनकी माता जी चिन्तित होने लगी। उनको लगा शायद संघ हिंसा और तोडफोड में विश्वास रखने वाले दिग्भ्रामित युवकों का कोई गुप्त संगठन है पर जब मा० बाबासाहब आप्टे प्रयाग आये तो रज्जू भैय्या ने आग्रहपूर्वक उन्हें अपने घर पर ठहराया, उनका प्रौढ़ व्यक्तित्व मोटा चश्मा, सिर पर पगडी तथा प्राचीन ज्ञान-विज्ञान, धर्मशास्त्र आदि के बारे में उनका अदभुत ज्ञान देखकर माता जी को अपार सन्तोष हुआ।

संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरूजी से रज्जू भैय्या बहुत प्रभावित थे, 1943 से 1973 तक लगातार 30 वर्ष वे उनके प्रभावी सम्पर्क में रहे। 1943 के काशी संघ शिक्षा वर्ग में श्री गुरू जी ने शिवजी का जयसिंह के नाम पत्र विषय पर पौने दो घंटे का धाराप्रवाह भाषण दिया। वस्तुतः उस भाषण ने ही रज्जू भैय्या के भावी जीवन की दिशा निर्धारित कर दी थी।

उनके छात्र-जीवन के यो तो अनेक संस्मरण है, पर सर्वाधिक चर्चित हुई वह घटना, जब नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक डा० सी. वी. रमन एम. एस. सी अन्तिम वर्ष की परीक्षा लेने प्रयाग आये वे उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित हुए कि उन्हें बंगलौर चलकर अपने साथ शोध कार्य में सहायक बनने का निमन्त्रण दे डाला। परन्तु युवा राजेन्द्र ने तो अपने जीवन का लक्ष्य माँ भारती की आराधना करना ही बना लिया था, अतः विनम्रता से उन्होंने उस निमन्त्रण को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने प्रयाग का अपना मकान संघ कार्यालय के उपयोग के लिए दे दिया। अपना अधिकाश वेतन वे निर्धन छात्रों की फीस में खर्च कर देते थे। विश्वविद्यालय की प्राध्यापकी के साथ-साथ संघ कार्य हेतु पूरे उत्तर प्रदेश में प्रवास भी चलता रहता था।

प्रेमनगर (देहरादून) के श्री रोशनलाल जी बताते हैं 1944 में देहरादून के विद्यार्थी स्वयसेवकों का वन-विहार कार्यक्रम मानक सिद्ध मन्दिर पर हुआ, रज्जू भैय्या उसमें आने वाले थे. मुझे देहरादून बस अड्डे पर उन्हें लेने जाना था। निर्धारित समय पर बस से वे उतरे, मेरी दुबली-पतली काया और साइकिल को देखकर बोले, ‘मुझे बैठाकर चला लोगे? जी नहीं तो फिर आगे बैठो.. ” और मानक सिद्ध मन्दिर तक (लगभग 15 कि.मी.) रज्जू. भैय्या मुझे साइकिल पर बैठाकर ले गये। रास्ते भर सघगीत, कहानी, संस्मरण भी साइकिल के साथ-साथ चलते रहे।

1966 में उन्होने विश्वविद्यालय की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया और सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश एंव बिहार में संघ कार्य को गतिमान करने में जुट गये। इतना ही नहीं तो अपनी दादी श्रीमति अनंदा देवी के नाम पर बना अपना निजी मकान भी उन्होंने सघ- कार्य हेतु समर्पित कर दिया। 1975-76 में संघ पर प्रतिबन्ध और आपातकाल के दौर में रज्जू भैय्या, प्रो० गौरव कुमार के नाम से सतत प्रवास करते रहे।

रज्जू भैय्या की इस असामान्य प्रतिभा और कुशल संगठन क्षमता को संघ के केन्द्रीय नेतृत्व ने पहचाना और उन्हें 1977 में सहसरकार्यवाह तथा 1978 सरकार्यवाह (महामंत्री) जैसा महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंप दिया गया। नौ वर्षो तक इस महत्त्वपूर्ण दायित्व को संभालने के बाद नये और युवा कार्यकर्ता को आगे आने का अवसर प्रदान करने की संघ पद्धति का अनुसरण करते हुए रज्जू भैय्या ने दक्षिण भारत के क्षेत्रीय प्रचारक श्री हो. वे शेषाद्रि को सरकार्यवाह बनाने का आग्रह किया और स्वयं सहसरकार्यवाह (सहमंत्री) रहते हुए उनका सहयोग करते रहने का काम संभाला। नौ वर्ष तक जिस व्यक्ति ने संघ के सर्वोच्च संवैधानिक दायित्व (सरकार्यवाह) का पदभार वहन करते हुए संघ की सर्वोच्च अधिकार प्राप्त अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की गतिविधियों का संचालन किया, आज वही व्यक्ति दूसरे कार्यकर्ता को यह काम सौंप कर निरहकार भाव से स्वयंसेवक प्रतिनिधियों के बीच जा बैठा। संघ की इस निराली रीति-नीति को वे लोग कैसे समझ सकते हैं। और 11 मार्च 1994 को यह इतिहास फिर दोहराया गया, जब पूजनीय बालासाहब देवरस ने पुरानी पम्परा तोड़ते हुए अपने सामने ही प्रो0 राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैय्या) को संघ का सरसंघचालक बना दिया। रज्जू भैय्या यद्यपि बहुत शिक्षित, सम्पन्न तथा प्रतिष्ठित परिवार से आये थे। प्रायः वार्तालाप में वे अपने नाम से पहले परमपूज्य शब्द लगाने का विरोध करते है। उनका कहना है कि मैं तो वही पुराना सबका भाई “रज्जू भैय्या ” ही हूँ मुझे यही नाम सुनना अच्छा लगता है।

सरसंघचालक की भूमिका संघ में मित्र चिन्तक तथा पथ प्रदर्शक की है। इस नाते से पूरे देश में घूम-घूमकर संघ एवं समविचारी संगठनों के कार्यकर्ताओं से मिलना, विचार विमर्श करना तथा उनको दिशा-निर्देश देने का कार्य रज्जू भैय्या करते रहे। व्यक्ति अपने मन और मस्तिष्क से भले ही कितना सक्रिय एवं जागरूक रहने का प्रयास करे परन्तु शरीर का भी तो एक धर्म होता है, वह भी तो थकान और कमजोरी अनुभव करता ही है। 10 मार्च, 2000 को सब वरिष्ठ कार्यकर्ताओं से परामर्श करते हुए उन्होंने अ०भा० प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक में श्री कुप्.सी. सुदर्शन को पाँचवे सरसंघचालक का कार्यभार सौंप दिया।

पंचम प.पू. सरसंघचालक श्री कुप्. सी. सुदर्शन

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्राप्त इस देवदुर्लभ नेतृत्व की नूतन कड़ी के नायक अपने पाँचवे सरसंघचालक मा० कुपहल्ली सीतारामय्या सुदर्शन थे। जिन्हें 10 मार्च, 2000 को नागपुर में हुई अ०भा० प्रतितिनिध सभा के उद्घाटन सत्र में ही मा रज्जू भैय्या ने यह दायित्व दिया।

श्री कुप सी सुदर्शन मूलतः तमिलनाडु और कर्नाटक की सीमा पर बसे कुप्पहल्ली (मैसूर) ग्राम के निवासी थे। यद्यपि पिता श्री सीतारामय्या अपनी वन विभाग की नौकरी के कारण ज्यादतर म0प्र0 में ही रहे और वहीं रायपुर में 18 जून 1931 को श्री सुदर्शन जी का जन्म हुआ। रायपुर, दमोह, मंडला तथा चन्द्रपुर में प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद उन्होंने जबलपुर (सागर वि0वि0) से 1954 में दूरसंचार विषय में बी0ई0 की उपाधि ली तथा तब से संघ प्रचारक के नाते राष्ट्रहित में जीवन समर्पित कर दिया। 1964 में उन्हें मध्यभारत प्रान्त प्रचारक का दायित्व मिला. श्री सुदर्शन जी ज्ञान के भण्डार अनेक विषयों के जानकार तथा अदभुत वक्तत्व कला के धनी है। किसी भी समस्या की गहराई तक जाकर उसके बारे में मूलगामी चितन कर उसका वास्तविक समाधान ढूंढ निकालना, उनकी विशेषता थी। चाहे पंजाब की खालिस्तान समस्या हो या असम का घुसपैठ विरोधी आन्दोलन | पंजाब के बारे में उनकी यह सोच कि प्रत्येक केशधारी हिन्दू हैं तथा प्रत्येक हिन्दू दसों गुरूओं व उनकी पवित्र वाणी के प्रति आस्था रखने के कारण सिख है।

इसी प्रकार बंगला देश से असम में आने वाला मुसलमान षड्यन्त्रकारी घुसपैठिया है, जिसे वापस भेजना ही चाहिए।जबकि वहाँ से लुट-पिट कर आने वाला हिन्दू शरणार्थी है. अतः उसका सहानुभूतिपूर्वक शरण देनी चाहिये। मा० सुदर्शन जी के चिन्तन एवं अध्ययन के इन निष्कर्षो को जब संघ के स्वयंसेवकों वरिष्ठ अधिकारियों तथा देशभक्त नागरिकों को बोलना शुरू किया, तो पंजाब तथा असम आन्दोलन की दिशा ही बदल गयी। मा० सुदर्शन जी को संघ-क्षेत्र में जो भी दायित्व दिया गया.

उसमें अपनी नव-नवीन सोच के आधार पर उन्होंने नये-नय प्रयोग किय। 1969 से 1971 तक उन पर अ०भा० शारीरिक प्रमुख का दायित्व था. इस दौरान ही खड्ग, शूल छुरिका… आदि प्राचीन शस्त्रों के स्थान पर नियुद्ध, आसन खेल आदि को संघ शिक्षा वर्गों के पाठयक्रम में स्थान मिला। आपातकाल के अपने बन्दीवास में उन्होंने योगचाप पर नये प्रयोग किये तथा उनके स्वरूप बिल्कुल बदल डाला। योगचाप की लय और ताल के साथ होने वाले संगीतमय व्यायाम से 15 मिनट में ही शरीर का प्रत्येक जोड़ आनन्द एवं नवस्फूर्ति का अनुभव करता है। 1977 में उनका केन्द्र कोलकाता बनाया गया तथा शारीरिक प्रमुख के साथ-साथ उन पर पूर्वाचल भारत का विशेष दायित्व भी रहा।

1969 में उन्हें अ०भा० बौद्धिक प्रमुख का दायित्व मिला। आज शाखाओं पर बौद्धिक विभाग की ओर से होने वाले दैनिक कार्यक्रम (गीत, सुभाषित, अमृतवचन) साप्ताहिक कार्यक्रम (चर्चा, कथा-कथन, प्रार्थना–अभ्यास) मासिक कार्यक्रम (बौद्धिक वर्ग. समाचार, समीक्षा, जिज्ञासा समाधान, गीत-सुभाषित, एकात्मता, स्तोत्र आदि की व्याख्या) तथा शाखा के अतिरिक्त समय से होने वाली मासिक श्रेणी बैठक, इन सबको एक सुव्यवस्थित रचना-क्रम 1969 से 1990 के कालखण्ड में ही मिला। संघ कार्य तथा वैश्विक हिन्दू एकता के प्रयासों की दृष्टि से आपने ब्रिटेन, हालैण्ड, केन्या, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैण्ड, हांगकांग, अमेरिका, कनाडा, त्रिनिडाइ, टुबैगो, गुयाना आदि देशों कार प्रवास भी किया।

अब उनका शरीर थकने लगा था लगभग 20 वर्ष पूर्व हृदयरोग से पीड़ित होने पर चिकित्सकों ने बाइपास सर्जरी का एक मात्र उपाय बताया था। लेकिन आयुर्वेद का प्रयोग किया। लौकी के ताजे रस के साथ तुलसी, काली मिर्च आदि के सेवन से स्वयं को ठीक कर लिया था। 9 वर्ष बाद श्री सुदर्शन जी ने पीछे की परम्परा का निर्वहन करते हुए 21 मार्च 2009 को सरकार्यवाह श्री मोहन भागवत जी को छठे सरसंघचालक जी का कार्यभार सौंप दिया। बढ़ती उम्र में उन्हें कई समस्यायें दी। वै स्मृतिलोप के शिकार होने लगे थे। 15 सितम्बर 2012 को अपने जन्म स्थान रायपुर में उनका शरीर पूर्ण हुआ।

छठे प०पू० सरसंघचालक मोहन भागवत

मोहनराव मधुकरराव भागवत डा० मोहनराव मधुकरराव भागवत का जन्म महाराष्ट्र के चन्द्रपुर नामक एक छोटे से नगर में 11 सितम्बर 1950 को हुआ। उनके पिता मधुकरराव भागवत चान्द्रपुर क्षेत्र के प्रमुख थे जिन्होंने गुजरात प्राप्त प्रचारक के रूप में कार्य किया था।

श्री भागवत जी तीन भाई एक बहन चारों में सबसे बड़े हैं। श्री भागवत जी ने चन्द्रपुर के लोकमान्य तिलक विद्यालय से अपनी स्कूली शिक्षा और जनता इन्टर कालेज चन्द्रपुर से बी०एससी० प्रथम वर्ष की शिक्षा पूर्ण की उन्होंने पंजाबराव कृषि विद्यापीठ अकोला से पशु चिकित्सक और पशुपालन में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1975 आपातकाल के समय वे अपना पशु चिकित्सा में स्नातकोत्तर छोड़कर पूर्ण कालिक स्वयंसेवक बन गये।

1977 में वे महाराष्ट्र में अकोला के प्रचारक बने और फिर नागपुर व रिसर्श क्षेत्र के प्रचारक भी रहे। 1991 में से अखिल २०२२ शाखा पुस्तिका भारतीय शा० शि० प्र० बने व 1999 तक इस दायित्व का निर्वहन किया। तत्पश्चात् 1 वर्ष तक अखिल भारतीय प्रचारक प्रमुख रहे। 2000 में उन्हें सरकार्यवाह का दायित्व मिला व 21 मार्च 2009 को सरसंघचालक का दायित्व संभाला और वर्तमान समय में संघ के प० पू० सरसंघचालक है।