दूर होती जा रही है कल्पना – वीरेंद्र मिश्र
दूर होती जा रही है कल्पना पास आती जा रही है ज़िंदगी चाँद तो आकाश में है तैरता स्वप्न के...
दूर होती जा रही है कल्पना पास आती जा रही है ज़िंदगी चाँद तो आकाश में है तैरता स्वप्न के...
कोई और छाँव देखेंगे। लाभ घाटों की नगरी तज चल दे और गाँव देखेंगे। सुबह सुबह के सपने लेकर हाटों...
मिट्टी को देख फूल हँस पड़ा मस्ती से लहरा कर पंखुरियाँ बोला वह मिट्टी से– उफ मिट्टी! पैरों के नीचे...
कुम्हलाये हैं फूल अभी–अभी तो खिल आये थे कुछ ही विकसित हो पाये थे वायु कहां से आकर इन पर...
फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार। वही शाम पीले पत्तों की गुमसुम और उदास वही रोज का मन का...
दांतों से नाखून काटने का छोटों को जबरदस्ती डांटने का पैसे वालों को गाली बकने का मूंगफली के ठेले से...
पत्र मुझको मिला तुम्हारा कल चाँदनी ज्यों उजाड़ में उतरे क्या बताऊँ मगर मेरे दिल पर कैसे पुरदर्द हादसे गुज़रे।...
अपने हलके-फुलके उड़ते स्पर्शों से मुझको छू जाती है जार्जेट के पीले पल्ले–सी यह दोपहर नवम्बर की। आयीं गयीं ऋतुएँ...
मेरे आँसू तो किसी सीप का मोती न बने साथ मेरे न कभी आँख किसी की रोई ज़िन्दगी है इसकी...
‘रहिमन’ धागा प्रेम को‚ मत तोड़ो चटकाय टूटे से फिर ना मिले‚ मिले गांठ पड़ जाय। रहीम कहते हैं कि...
इस डगर पर मोड़ सारे तोड़, ले चूका कितने अपरिचित मोड़। पर मुझे लगता रहा हर बार, कर रहा हूँ...
लो आ पहुँचा सूरज के चक्रों का उतार रह गई अधूरी धूप उम्र के आँगन में हो गया चढ़ावा मंद...